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वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।
  • क्या नाटो विश्व युद्ध का जोखिम उठाएगा?

    पिछले दो हफ्तों में मैक्रों ने अनेक बार कहा है कि वे फ्रांस की सेना को यूक्रेन भेजना चाहते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक अगर मैक्रों ऐसी घोषणा करते हैं, तो उसके बाद पोलैंड, चेक रिपब्लिक और कुछ अन्य देश भी अपनी फौज यूक्रेन भेज सकते हैं। इसका अर्थ रूस के साथ इन देशों का सीधा युद्ध शुरू होने में सामने आएगा और तब परिस्थितियां विश्व युद्ध की तरफ भी जा सकती हैं। क्या फ्रांस यूक्रेन युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से शामिल होने की तैयारी में है? पिछले दो हफ्तों में मैक्रों ने अनेक बार कहा है कि वे फ्रांस की...

  • सहारे की तलाश में ‘बहुजन’ विमर्श?

    एक समय “कांग्रेस और भाजपा को सांपनाथ और नागनाथ के रूप में देखने वाला ‘दलित’ विमर्श” अब इन दोनों पार्टियों के बीच ही सामाजिक न्याय, समाज सुधार और बहुजन सशक्तीकरण की संभवना तलाशने लगा है। उसका एक खेमा अब “सामाजिक रूप से भाजपा के लोकतांत्रिक बन जाने” की उम्मीद जोड़ रहा है, तो दूसरा खेमा कांग्रेस को अपनी सोच का प्रतिनिधि मानने लगा है।…आखिर क्या बदल गया है कि अब दलित-ओबीसी विमर्श के एक बड़े हिस्से में भाजपा, तो दूसरे हिस्से में कांग्रेस स्वीकार्य हो गई है। OBC Dalit Politics ‘दलित’ विमर्श के दो प्रमुख बुद्धिजीवियों के इन कथनों पर...

  • दक्षिणी राज्यों का केंद्र के खिलाफ क्यों मोर्चा?

    मुमकिन है कि दक्षिणी राज्यों की दलील में कुछ अतिशयोक्ति हो, लेकिन निर्विवाद रूप से ये सारी गंभीर शिकायतें हैं। उचित तो यह होता कि केंद्र सरकार  संवेदनशीलता दिखाती और दक्षिण से उठ रही शिकायतों को संवाद से दूर करने की कोशिश करती। लेकिन उसका नजरिया हर शिकायत को नजरअंदाज कर उस पर सियासी ध्रुवीकरण शुरू कर देने का है। फिलहाल तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऐसी सोच देश के हित में नहीं है। दक्षिणी राज्यों ने अपने साथ वित्तीय ‘अन्याय’ को अब एक बड़ा मुद्दा बना दिया है। लेकिन उनकी शिकायत सुनने के बजाय ऐसा लगता...

  • चुनाव प्रक्रिया पर शक उठे हैं, तो उनका निवारण जरूरी

    न्याय के सिलसिले में अक्सर यह कहा जाता है कि इंसाफ ना सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। यानी इंसाफ इस ढंग होना चाहिए कि संबंधित पक्षों को यह महसूस हो कि न्यायालय ने सभी साक्ष्यों की रोशनी में बिना किसी राग-द्वेष और पूर्वाग्रह या पक्षपात के अपना फैसला दिया है।... यही बात चुनाव पर भी लागू होती है। चुनावोंके आयोजन में ऐसी पारदर्शिता जरूरी है, जिससे उसकी निष्पक्षता में सभी पक्षों का भरोसा बरकरार रहे। चुनावों की निष्पक्षता और पवित्रता पर जितने गंभीर प्रश्न अब उठ रहे हैं, वैसा आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं...

  • प्रतिरोध को राजनीतिक संघर्ष बनाने की चुनौती

    किसान और मजदूर संगठनों के एक मंच पर आने से 16 फरवरी का प्रतिरोध अधिक प्रभावशाली हो जाएगा। इसके बावजूद इस उम्मीद का कोई आधार नहीं है कि इससे किसान या मजदूर वर्गों को अपनी मांगों को मनवाने में कोई सफलता मिलेगी। इस प्रतिरोध से अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को पराजित कर देने की जमीन तैयार होगी, इसकी आशा भी करने का कोई ठोस आधार नहीं है। ऐसे प्रतिरोध पहले भी हुए हैं, जो प्रतीकात्मक बन कर रह गए। इस बार भी यही संभावना है कि पहले जैसी कहानी दोहराई जाएगी।इसलिए किसान और मजदूर संगठनों को इस बारे में...

  • देश में कुल कितने लोग हैं खुशहाल?

    अमेरिकी इन्वेस्टमैंक गोल्डमैन शैक्स ने भारतीय बाजार के बारे में एक नई रिपोर्ट पेश की है। उसके मुताबिक भारत में महंगी वस्तुओं (यानी प्रीमियम गुड्स) का बाजार अब छह करोड़ लोगों का हो चुका है है। गोल्डमैन शैक्स ने अनुमान लगाया है कि 2027 तक भारतीय बाजार दस करोड़ लोगों का हो जाएगा। इस इन्वेस्टमेंट बैंक ने प्रीमियम गुड्स के बाजार में उन लोगों को शामिल किया है, जिनकी सालाना आमदनी दस हजार डॉलर (यानी लगभग साढ़े आठ लाख रुपये) से ज्यादा है। ….भारत में 70 हजार रुपये से अधिक आय वर्ग में आने वाले लोगों की संख्या सिर्फ छह...

  • क्यों लिबरल डेमोक्रेसी हर जगह संकट में?

    साल 2024 को चुनावों का साल कहा जा रहा है। कारण यह कि इस वर्ष दर्जनों “लोकतांत्रिक” देशों में आम चुनाव होने वाले हैं। शुरुआत रविवार (सात जनवरी) को बांग्लादेश से हुई, जहां संसद के लिए मतदान हुआ।  फिर ताइवान, पाकिस्तान, रूस, भारत, दक्षिण अफ्रीका, यूरोपीय संघ, पुर्तगाल, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको, वेनेजुएला, आदि से होते हुए अमेरिका की बारी आएगी। साल का अंत (अगर प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने समय से पहले ही मतदान करा लेने का निर्णय नहीं लिया, तो) ब्रिटेन के आम चुनाव से होगा। इन तमाम चुनावों में संभवतः ताइवान और मेक्सिको अपवाद हैं, जहां आम चुनाव...

  • साल 2024 में भारत की कूटनीतिक चुनौतियां

    दुनिया में प्रासंगिक समूह अब जी-7 और ब्रिक्स प्लस-एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन)-ईएईयू (यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन) हैं। ब्रिक्स प्लस, एससीओ और ईएईयू में तालमेल लगातार बढ़ रहा है। इससे इनकी एक साझा पहचान उभर रही है। …..ब्रिक्स में शामिल होने के लिए पाकिस्तान के आवेदन को रूस पूरा समर्थन दे रहा है। चीन और ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों का समर्थन भी उसे मिलने की संभावना है। ऐसे में भारत क्या रुख अपनाता है, इससे 2024 में ब्रिक्स के साथ भारत के रिश्तों पर असर पड़ सकता है। 2024 में ब्रिक्स की मेजबानी रूस करेगा।…. अगर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में...

  • किसका मान और किसका अपमान?

    हकीकत यह है कि जाति का विनाश हो या पिछड़े-दलित-आदिवासी समुदायों के वंचित समूहों का प्रतिनिधित्व- मान-अपमान के मौजूदा इलीट विमर्श के साथ इन मकसदों का तीखा अंतर्विरोध खड़ा हो गया है। इलीट राजनीति इन मकसदों को पूरा करने की राह में हमेशा की तरह आज भी बाधक बनी हुई है। लेकिन हालिया घटनाक्रम यह है कि वंचित समूहों से उभर कर आए लेकिन अब इलीट श्रेणी में शामिल हो चुके नेता और बुद्धिजीवी भी इसी बाधक राजनीति का हिस्सा बन गए हैँ।  इलीट शब्द का हिंदी अनुवाद अभिजात या सभ्रांत है। उर्दू में इसे अशराफिया कहते हैं। डिक्शनरी ब्रिटैनिका...

  • मार्केट, मंदिर और मंडलः ये हैं आज भाजपा की ताकत

    इस महीने को दो घटनाओं ने देश के एक बड़े हिस्से में नाउम्मीदी पैदा की है। यह समाज का वो हिस्सा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की कार्य प्रणाली, तथा भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से असहमत है। पहली घटना तीन दिसंबर को हुई, जिस रोज पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव नतीजे आए। इनमें तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा की जीत से आबादी के इस हिस्से को तगड़ा झटका लगा। खास कर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की पराजय को लेकर यह तबका एक हद तक आश्वस्त था। राजस्थान...

  • बदला है भारतीय न्यायपालिका का नजरिया?

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद 370 का मकसद जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ एकीकरण था। तब यह प्रश्न उठेगा कि अगर अनुच्छेद 370 का यह उद्देश्य था, तो फिर अनुच्छेद 371 का क्या मकसद है? इस अनुच्छेद की उपराधाराओं A लेकर J तक के जरिए महाराष्ट्र एवं गुजरात, नगालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा को कई प्रकार के विशेष अधिकार और संरक्षण मिले हुए हैं। आम समझ में अनुच्छेद 370 को इसी क्रम में देखा जाता रहा है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अलग व्याख्या सामने रखी है।    अनुच्छेद 370 को...

  • विपक्ष अभी भी भाजपा की ताकत को समझा नहीं!

    अगर विपक्ष ऐसे ही टोने-टोटकों और जोड़-तोड़ के समीकरणों के भरोसे बैठा रहा, तो कहा जा सकता है कि 2024 और उसके आगे भी आम चुनावों में उसका कोई भविष्य नहीं है। अगर वह अपना भविष्य बनाना चाहता है, तो उसे राजनीति की नई परिकल्पना करनी होगी- राजनीति क्या है इसकी एक नई समझ बनानी होगी। नई राजनीति नए तौर-तरीकों से ही की जा सकती है। इसलिए ऐसे तौर-तरीके ढूंढने होंगे।लेकिन ऐसा इलीट कल्चर (अभिजात्य संस्कृति) में जीते हुए करना असंभव है। यह एक श्रमसाध्य राजनीति है, जिसके लिए कम से कम आज का विपक्ष तो तैयार नहीं दिखता।  ...

  • इजराइल को दूरगामी नुकसान हुआ है

    दुनिया ने आवाक होकर इस भयानक नजारे को देखा और फिर उसका विरोध एवं उस पर गुस्सा कई रूपों में व्यक्त हुआ। नतीजतन, दुनिया की निगाह में आम तौर पर पूरे पश्चिम- और विशेष रूप से अमेरिका और इजराइल का अख़लाक पूरी तरह चूक गया है। चूंकि इजराइल और हमास एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं, इसलिए मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनमें एक को हुआ नुकसान दूसरे का लाभ है। इजराइल और फिलस्तीन के बीच 47 दिन तक चली लड़ाई के बाद ‘मानवीय आधार पर हमले रोकने’ के लिए हुए समझौते का श्रेय अमेरिका के...

  • दो नावों पर सवारी का अब विकल्प नहीं

    अमेरिका और चीन के बीच लगतार बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण भू-राजनीति में आमूल बदलाव आ रहा है। हम विश्व अर्थव्यवस्था को आपसी होड़ में शामिल दो खेमों के बीच विखंडित होते देख रहे हैं। उनमें से हर खेमा दुनिया के अधिक से अधिक बड़े हिस्से को अपने रणनीतिक हितों और साझा उसूलों के करीब खींचने की कोशिश कर रहा है। यह विखंडन दो बंटे हुए खेमों में ठोस रूप ले सकता है, जिनका नेतृत्व दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (अमेरिका और चीन) के हाथ में होगा।’...अब दुनिया भर के देशों को बंटती दुनिया के बीच अपना पक्ष चुनना होगा...पर...

  • इजराइल क्यों अमेरिका के लिए इतना खास?

    सवाल आज दुनिया में बहुत से लोगों के मन में है और इस पर खासी चर्चा भी हो रही है। तो आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका के इस लगाव के संभवतः दो आयाम हैं। इनमें एक का संबंध अमेरिका की अंदरूनी राजनीति से है। दूसरा अमेरिका की वर्चस्ववादी महत्त्वाकांक्षाओं से संबंधित है। इन महत्त्वाकांक्षाओं के नजरिए से देखें, तो कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस से समृद्ध पश्चिम एशिया पर नियंत्रण बरकरार रखना विश्वव्यापी अमेरिकी वर्चस्व के लिए निर्णायक महत्त्व का है।    सत्येंद्र रंजन फिलस्तीन के गजा में इजराइली अत्याचार दीर्घकालिक नजरिए से अमेरिका के लिए बहुत महंगा...

  • चमकती अर्थव्यवस्था और बदहाल लोग

    अमेरिका में जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर का वहां के आम उपभोक्ताओं की खुशहाली से कोई रिश्ता नहीं है। बल्कि ये दोनों बातें आज विपरीत दिशा में जाती दिख रही हैं। मगर बात यहीं तक नहीं है। एक तथ्य यह भी है कि जिस समय जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर हासिल हुई है, उसी समय अमेरिका में कंपनियों का संकट गहरा रहा है। ऋण डिफॉल्ट करने का खतरा उनके सिर पर मंडरा रहा है।…तो आखिर जीडीपी और आम अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा फर्क क्यों है? यह प्रश्न सिर्फ अमेरिका के लिए ही नहीं, बल्कि बाकी पूरी दुनिया के लिए भी...

  • कठघरे में है सरकार की विदेश नीति

    यह वक्त गहरे आत्म-निरीक्षण का है। भारत के नीति निर्माताओं को इस बात की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए कि वैसे तो पिछले साढ़े तीन दशक में, लेकिन खासकर पिछले नौ वर्षों के दौरान विदेश नीति संबंधी जो प्राथमिकताएं तय की गईं, उनसे देश को असल में क्या हासिल हुआ है? क्या इस प्राथमिकताओं से भारतीय जनता के हित सधे हैं? और इनसे भारत अपने इतिहास, अपने आकार, अपनी शक्ति, और अपनी संभावनाओं के अनुरूप विश्व मंच पर अपनी हैसियत बनाने में कामयाब हुआ है? बात की शुरुआत हाल में घटी कुछ घटनाओं के जिक्र से करते हैं। ध्यान दीजिएः बीजिंग...

  • लोकतंत्र के संकट के बीच नए अवसर भी मौजूद

    इस बात का ठोस संकेत है कि परंपरागत लेफ्ट, राइट और सेंटर की राजनीति का कोई दूरगामी भविष्य नहीं है। राजनीति लगभग हर जगह धुर-दक्षिणपंथ (जिसका प्रमुख एजेंडा नफरत और अवैज्ञानिक सोच का प्रसार है) और श्रमिक वर्ग की नुमाइंदगी का प्रयास करने वाली लेफ्ट ताकतों के बीच बंटती जा रही है। चूंकि भारत में दूसरी श्रेणी वाली ताकतों का अभाव है, इसलिए पहली श्रेणी वाली ताकत अपराजेय अवस्था में दिखती है। श्रमिक वर्ग के नजरिए यही परिघटना रोग का बुनियादी निदान (diagnosis) है, जिसे अगर ध्यान में रखा जाए, तो उपचार के रास्तों की तरफ बढ़ना संभव हो सकता...

  • गड़बड़ा गया भारत और अमेरिका का दांव

    लगता है कि पश्चिमी देश इस निष्कर्ष पर पहुंच गए हैं कि भारत को मिल रही  रियायतें खत्म करने का समय आ चुका है। यह बात अब खबरों में आ चुकी है कि जब Five Eyes के सदस्य देशों के नेता जी-20 सम्मेलन के लिए नई दिल्ली आए, तब उनके पास भारतीय एजेंसियों की कथित गतिविधियों की जानकारी थी। उन्होंने यहां इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत की। संभवतः मोदी ने ट्रुडो को झटक दिया, जबकि जो बाइडेन सहित बाकी नेताओं की बात को ज्यादा तव्वजो नहीं दी।.. अभी कहना कठिन है कि कहानी किस दिशा में जाएगी।...

  • राहुल गांधी की चार बातें और उनसे जुड़े सवाल

    विवेकहीनता के मौजूदा माहौल के कारण राहुल गांधी की बातें ताजा हवा के एक झोंके की तरह महसूस हुई हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि झोंके को कैसे एक बड़ी आंधी में बदला जाए, जिससे आज की पॉलिटिकल इकॉनमी के ढांचे की जड़ों को हिलाया जा सके। राहुल गांधी ने इस दिशा में किसी सोच का संकेत अभी तक नहीं दिया है। यह तथ्य उनकी एक बड़ी सीमा बना हुआ है।   राहुल गांधी ने अपनी हाल की यूरोप यात्रा के दौरान ऐसी कम से कम चार ऐसी बातें कहीं, जिन्होंने ध्यान खींचा। इनमें से कुछ बातें राहुल गांधी ने...

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