वादों में गुम प्रजातंत्र

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वादों में गुम प्रजातंत्र
भोपाल। राष्ट्रकवि एवं फिल्मी गीतकार इंदीवर ने ये क्या खूब पंक्तियां लिखी है, हमें 15 अगस्त 1947 को वादों में लिपटी आजादी ही मिली। उस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले से सपनों की कितनी ऊंची उड़ान भरी थी, क्या देश पर करीब 17 साल राज करने वाले पंडित नेहरू इतनी लंबी अवधि में भी स्वयं द्वारा निर्धारित ऊंचाई तक पहुंच पाए और उनके बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने भी लगभग 17 साल ही इस देश पर एकछत्र राज किया उन्होंने भी अपने पिताजी से कम ऊंचाई के सपने नहीं परोसे, किंतु क्या वे सपने भी जन आकांक्षा की पूर्ति कर पाएं? और इंदिरा जी के जाने के बाद करीब 38 साल से यह देश बड़ी आशा भरी नजरों से हर प्रधानमंत्री की ओर देखता है और आखिर में उसे वही निराशा हाथ लगती है, वही सिलसिला आज भी बखूबी जारी है और अब तो देश की जनता के दिल दिमाग नैराश्य के कोहरे में हाथ पैर मारने को मजबूर है और अब धीरे-धीरे प्रजातंत्र से ही मोह भंग होने के कगार पर है, क्योंकि पिछले 9 सालों में भी जो वादे किए गए वह सब अधूरे हैं और अब जब अगले चुनाव को सिर्फ 300 दिन ही शेष बचे हैं, तब हमारे आधुनिक करणधारों को अपने वादे याद आ रहे हैं? यहां यह भी स्मरणीय है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर चिंता जाहिर की थी कि चुनाव के समय राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए जो घोषणा पत्र जारी करते हैं, चुनाव जीतने और सत्ता प्राप्ति के बाद उन घोषणाओं को मूर्त रूप सरकारी धन खर्च कर देते हैं यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के इस चिंता भरे सवाल का जवाब तो आज तक किसी ने भी नहीं दिया, किंतु क्या यह व्यवस्था हमारी प्रजातांत्रिक प्रणाली को बदनाम नहीं करती? यह तो पार्टीगत लिखित घोषणाओं की बात हुई किंतु राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता जो चुनाव के वक्त अपने भाषणों में अनगिनत वादे करते हैं, उनका हिसाब किताब कौन रखता है? क्या उनमें से कुछ अंश ही पूरा हो पाता है? और फिर इन राजनेताओं के अपने वादे अपने शासनकाल के दौरान नहीं सिर्फ और सिर्फ चुनाव के वक्त ही याद आते हैं और उनमें कुछ नए वादे जोड़कर फिर वोटरों के सामने इन्हें परोस दिया जाता है? हर देश की बात फिलहाल नहीं कर सिर्फ अपने प्रदेश की ही करें तो हमारे प्रदेश के चुनाव में सिर्फ डेढ़ सौ दिन के करीब शेष बचे हैं और अब प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक से सत्ता के सिंहासन पर विराजे मुख्यमंत्री जी को अपने पिछले वादों की याद आई है और उनकी समीक्षा शुरू करने के निर्देश दिए गए हैं और इसी माह के अंत तक समीक्षा प्रतिवेदन उन्हें सौंपने के निर्देश भी दिए गए हैं, बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री जी ने कुल मिलाकर 2383 वादों के रूप में विभिन्न घोषणा की थी उनमें से सिर्फ 1195 तो पूरी हो गई जो पिछले 4 सालों में पूरी हुई और शेष 1188 वादों भरी घोषणाओं को अगले डेढ़ सौ दिन में मूर्त रूप देने के निर्देश दिए गए हैं, पूरा मंत्रालय सब काम धाम छोड़कर इसी कार्य में व्यस्त हो गया है। स्वयं मुख्यमंत्री जी इनकी निगरानी कर रहे हैं। यह सब राजनीतिक रूप से इस बात के संकेत है कि मौजूदा सरकार पर सवार सत्तारूढ़ दल के मुखिया को अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता सताने लगी है और वे इसी में अब खो गए हैं? मतलब यह है कि 3 सालों में जितने वादों को मूर्त रूप देने का दावा किया जा रहा है, उतने ही शेष वादे महज डेढ़ सौ दिन में पूरे करने के प्रयास किए जा रहे हैं? क्या यह ईमानदारी पूर्ण प्रयास कहा जा सकता है? मौजूदा मुख्यमंत्री पर विपक्षी दल पिछले 15 सालों में उनके द्वारा की गई करीब 22000 घोषणाओं को भुला देने का भी आरोप लगा रहा है। अब यह तो तय है कि मध्य प्रदेश का यह चुनावी साल है और प्रजातंत्र की यह परिपाटी रही है कि चुनावी साल में राजनीतिक दल व वोटर दोनों ही विगत 4 वर्षों की समीक्षा करते हैं और चुनावी महीने में यह तय करते हैं कि “इस बार मतदान किसके पक्ष में करना है”? इसीलिए यह राजनीतिक दल व उसके नेता भी सतर्क हो गए हैं और मतदाता भी? और फिर इनके बीच की कड़ी अधिकारी तंत्र है, जो यह तय करने में मददगार बनता है कि अब आगे किसका भविष्य उज्जवल है? इस प्रकार कुल मिलाकर यह चुनावी वर्ष प्रदेश, राजनीति व आम मतदाता तीनों के लिए काफी अहम है, अब देखते हैं इस बार 'चुनावी ऊंट' किस करवट बैठता है?

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