अभी भी सांस ले सकती है जी नहीं सकती!

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अभी भी सांस ले सकती है जी नहीं सकती!
ईरान में लड़कियों को पढ़ाई-लिखाई से वंचित करने के लिए उन्हें जहर सुंघाया जा रहा है। अफगानिस्तान में महिला होना जुर्म है।... दुनिया के एक दूसरे हिस्से में बोको हराम यह तय करता है कि लड़कियों के लिए क्या हराम है।... हमारे देश की राष्ट्रपति और वित्तमंत्री महिलाएं हैं। इसके बावजूद 53 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि वे अपने घर के बाहर कदम नहीं रखतीं।...भारत में हमारी लड़ाई समान अधिकारों के लिए थी। हम चाहते थे कि हमें वही सम्मान मिले जो पुरूषों को मिलता है, वही अधिकार मिलें जो पुरुषों को हासिल हैं। और यह लड़ाई आज भी जारी है। परंतु क्या कानूनों का दुरूपयोग करके और पुरूषों का शोषण कर हम वह पा सकते हैं जो हम पाना चाहते हैं? क्या हम मानवीय रिश्तों में अविश्वास नहीं घोल रहे हैं? सच यह है कि बदलाव हर व्यक्ति और उसके परिवार से शुरू होता है। और यहां मैं एक अशोक मोदी की पुस्तक ‘ब्रोकन इंडिया' को उद्धत करना चाहूंगी जो पूरी समस्या को एक सही संदर्भ देता है - ‘‘एक शिक्षित पिता अपने पुत्र को शिक्षित करता है, एक शिक्षित माता पूरे परिवार को शिक्षित करती है"।आज हमें जरूरत है अच्छी शिक्षा की, सही शिक्षा की, जो महिलाओं और पुरुषों दोनों तक पहुंचे। महिला दिवस हे दुनिया की महिलाओं, क्या हमने एक लंबी और कठिन यात्रा तय कर ली है? क्या हमने अपनी मंजिल पा ली है? आसान शब्दों में, क्या हम खुश हैं? संतुष्ट हैं? क्या हम जीत का जश्न मना सकते हैं? इस मुद्दे पर यदि ट्विटर पर रायशुमारी की जाए तो एकदम साफ जवाब होगा ‘नहीं'।और यह ठीक भी है। एक सौ चौदह साल बाद भी लड़ाई जारी है। हम अब भी इंसाफ और बराबरी पर आधारित दुनिया से मीलों दूर हैं। जिन्हें यह पता नहीं है, उनकी जानकारी के लिए पहला ‘महिला दिवस' 3 मई 1908 को शिकागो में मनाया गया था। आयोजक थी अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी। इस दिन को ‘महिला कर्मियों के हितार्थ' समर्पित किया गया था। और इस दिन वहां करीब 1,500 महिलाओं ने इकट्ठा होकर आर्थिक और राजनैतिक समानता की मांग की थी। यह तो हुआ फ़्लैशबैक। अगर हम आज की बात करें तो 8 मार्च को पूरी दुनिया में महिला दिवस मनाया जाता है। यह दिन महिलाओें के नाम है। पिछले कई वर्षों की तरह, इस बार भी व्हाटसएप पर गुलाबी रंगत में सुन्दर फूल-पत्तियों से सजे ‘हैप्पी वीमेन्स डे' के अगणित मैसेज फारवर्ड किए जाएंगे। साथ में होंगे महिलाओं के उपयोग की चीज़ों और मैनीक्योर व पेडीक्योर के लिए डिस्काउंट के आफर। चाहे मदर्स डे हो, वेलेंटाईन्स डे या वीमेन्स डे - कुछ शब्दों के फेरबदल के साथ संदेश मूलतः वही होते हैं। पर क्या सचमुच सब कुछ इतना सुखद और सुंदर है? ईरान में लड़कियों को पढ़ाई-लिखाई से वंचित करने के लिए उन्हें जहर सुंघाया जा रहा है। अफगानिस्तान में महिला होना जुर्म है। वहां महिलाएं शिक्षा हासिल नहीं कर सकतीं, काम नहीं कर सकतीं, अपनी मर्जी से कहीं आ-जा नहीं सकतीं। उन्हें केवल सांस लेने का अधिकार है; जीवन जीने का नहीं। उनके लिए लगभग सब कुछ हराम है। दुनिया के एक दूसरे हिस्से में बोको हराम यह तय करता है कि लड़कियों के लिए क्या हराम है। बोको हराम ने 2014 में नाईजीरिया के चिबोक शहर के एक स्कूल से 276 लड़कियों का अपहरण कर लिया। लक्ष्य था सरकार और महिलाओं दोनों को यह संदेश देना कि लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का क्या अंजाम हो सकता है। हमारे देश की राष्ट्रपति और वित्तमंत्री महिलाएं हैं। इसके बावजूद 53 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि वे अपने घर के बाहर कदम नहीं रखतीं। लैंगिक असमानता के मामले में हमारा देश शीर्ष के कुछ राष्ट्रों में शामिल है। हमारे यहाँ लिंगानुपात निम्न है और कामगारों में महिलाओं की भागीदारी (27 प्रतिशत) दुनिया में न्यूनतम है। धरती के दूसरी ओर, जहां स्त्रीवाद और समानता के नारे जमकर लगाए जाते हैं, वहां भी सब कुछ ठीक नहीं है। अमेरिका में रो बनाम वाडे मामले के पलटने के बाद महिलाओं को अब अपने शरीर की कार्यप्रणाली और अपने जीवन की राह तय करने का अधिकार भी नहीं है। ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में - विशेषकर महामारी के बाद - महिलाओं के रोजगार छीने जा रहे हैं और उन पर बच्चों को घर पर पढ़ाने और सारे घरेलू कामकाज का बोझ लादा जा रहा है। यह एक ऐसा दौर है जब दो महिला प्रधानमंत्रियों की बैठक के बाद उनसे पूछा जाता है कि "क्या वे हमउम्र और एक ही लिंग की होने के कारण मिल रही हैं!" स्त्रीवादियों ने पिछली कुछ सदियों में अनेक मंजिलें हासिल की हैं - वोट देने, तलाक देने और शिक्षा प्राप्त करने के हक और कानून और चिकित्सा की पढ़ाई करने का अधिकार। वे अब युद्धों और अकालों को कवर कर सकती हैं, राजनीति में उतरकर अपने देश का नेतृत्व कर सकती हैं, आपसी सहमति से शारीरिक संबंध बना सकती हैं,  उन खेलों में भाग ले सकती हैं जो टीम के रूप में खेले जाते हैं, सीईओ बनने की दौड़ में शामिल हो सकती हैं, गर्भपात करवा सकती हैं और हिंसक जीवनसाथियों से मुक्ति पा सकती हैं। निःसंदेह प्रगति हुई है। जो अप्राप्य लगता था वह हासिल हो गया है  परंतु आज, 2023 में, मुद्दा यह है कि यह सब हो चुका है। अब आगे क्या? एक सौ चौदह साल बाद आज भी महिलाएं अपने भविष्य को लेकर भयातुर हैं। क्या हम पीछे की ओर जा रहे हैं? क्या आज का समाज पहले की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक कठोर हो गया है? क्या वे पहले से ज्यादा लाचार और कम स्वतंत्र हैं? इसमें कोई शक नहीं कि माहौल निराशाजनक है। महामारी के बाद की दुनिया में महिलाओं का मजाक बनाया जाता है और उनका तिरस्कार होता है और उनसे अवांछित प्रश्न पूछे जाते हैं। उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है, उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है। शादी, परिवार की देखभाल और बच्चों के पालन-पोषण के नाम पर उन्हें उनकी नौकरियों से वंचित किया जा रहा है और उनके शौक और इच्छाओं को मसला जा रहा है। समाज पहले से ज्यादा कठोर, ज्यादा संकीर्ण हो गया है और अत्यंत अप्रासंगिक बातें कही जा रही हैं। पूरी दुनिया में और भारत में भी पुरूष अधिकार समूह उभर आए हैं जो जोरशोर से स्त्रीवादी आंदोलन की खिलाफत कर रहे हैं। उनका कहना है कि महिलाओें के अधिकारों को पुरूषों के अधिकारों की कीमत पर बढ़ावा दिया जा रहा है। यह दुःखद है कि इसमें थोड़ी सच्चाई है। विशेषकर भारत में महिलाएं प्रतिशोध लेने के लिए कानूनों का दुरूपयोग कर रही हैं। बेशक निर्भया और आसिफा जैसी दिल दहलाने वाली घटनाएं हो रही हैं परंतु साथ ही ऐसे मामले भी हैं जिनमें दुष्कर्म जैसे गंभीर और नृशंस अपराध का मखौल बनाया जा रहा है। अगर कोई पुरूष किसी रिश्ते से बाहर हो जाता है तो आपसी सहमति से बना शारीरिक संबंध अचानक दुष्कर्म में परिवर्तित हो जाता है। व्यावसायिक विवादों में धारा 376 मीटू का स्थान ले लेती है। एक समय था जब दहेज कानून का जमकर दुरूपयोग होता था। अनगिनत पुरूषों और उनके परिवारों को समाज की दृष्टि में अपराधी घोषित कर दिया गया। और अब धारा 376 के जरिए यही किया जा रहा है। हमारी लड़ाई समान अधिकारों के लिए थी। हम चाहते थे कि हमें वही सम्मान मिले जो पुरूषों को मिलता है, वही अधिकार मिलें जो पुरुषों को हासिल हैं। और यह लड़ाई आज भी जारी है। परंतु क्या कानूनों का दुरूपयोग कर और पुरूषों का शोषण कर हम वह पा सकते हैं जो हम पाना चाहते हैं? क्या हम मानवीय रिश्तों में अविश्वास नहीं घोल रहे हैं? क्या हम विपरीत लिंगों के व्यक्तियों को एक-दूसरे को हमेशा शक की निगाह से देखना नहीं सिखा रहे हैं? क्या इससे महिलाएं फिर से अंधेरे में नहीं धकेली जा रही हैं? निश्चय ही इससे महिलाओं के वास्तविक हित हासिल नहीं हो रहे हैं। क्या हम चाहते हैं कि पुरूष हम से इसलिए डरें कि हम उनसे बदला लेने के लिए या उनसे जबरिया पैसा वसूलने के लिए कानूनों का दुरूपयोग कर सकते हैं? या हम चाहते हैं कि पुरूष हमारी हिम्मत, हमारे काम और हमारी योग्यता का सम्मान करें। वे हमारी इज्जत इसलिए करें क्योंकि हम एक साथ बेटी, पत्नि, मां और प्रधानमंत्री की भूमिकाएं निभा सकती हैं, क्योंकि हमें मल्टीटास्किंग में महारथ हासिल है? मैं बिना किसी लागलपेट के महिलाओें की आजादी की हिमायती हूं। मैं तहेदिल से चाहती हूं कि एक ऐसा समाज बने जिसमें लैंगिक समानता हो और पुरूषों की तरह महिलाओं को भी बेहतर शिक्षा पाने, अपने जीवन और अपने शरीर के बारे में खुद निर्णय लेने का अधिकार हो और वे संपादक या सीईओ बन सकें। परंतु आखिर अपने आपको पीड़ित और बलि का बकरा बताने की कोई सीमा तो होनी चाहिए। अगर हम संपादक बनने या सेना में अफसरी करने की योग्यता रखते हैं तो क्या हमें अपने कार्यों और अपने निर्णयों की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? हम अपने अभिभावकों से लड़-भिड़कर आजादी हासिल करते हैं, काम करने का हक हासिल करते हैं तो फिर जब हम कोई गलत निर्णय ले लेते हैं तो हम इसे स्वीकार करना क्यों नहीं चाहते? जब हम चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि हम सब कुछ कर सकते हैं तो फिर हम जो करते हैं उसकी जिम्मेदारी हम क्यों लेना नहीं चाहते? स्त्रीवादी कहेंगे कि मैं स्त्रीवाद की विरोधी हूं। वे कहेंगे कि समाज पर पितृसत्तात्मकता हावी है। परंतु क्या ऐसे परिवार नहीं हैं जिनमें स्त्रियों का राज है, भले ही हम उनके बारे में बहुत नहीं पढ़ते या नहीं जानते। चाहे पितृसत्तात्मकता हो या मातृसत्तात्मकता दोनों ही एक बराबर बुरी हैं क्योंकि दोनों की आसक्ति एक ही सोच में है - पुरूष ज्ञान हासिल कर काम करें, महिलाएं घर में रहें और बच्चे पालें। तो आईए हम सारा दोष अपने पूर्वजों, धर्म और उसकी संकीर्णता पर लाद दें। इनके बाद हम सरकारों, उनकी नीतियों और नीति निर्माताओं को दोषी ठहरा सकते हैं। परंतु सच यह है कि बदलाव हर व्यक्ति और उसके परिवार से शुरू होता है। और यहां मैं एक अशोक मोदी की पुस्तक ‘ब्रोकन इंडिया' को उद्धत करना चाहूंगी जो पूरी समस्या को एक सही संदर्भ देता है - ‘‘एक शिक्षित पिता अपने पुत्र को शिक्षित करता है, एक शिक्षित माता पूरे परिवार को शिक्षित करती है"। आज हमें जरूरत है अच्छी शिक्षा की, सही शिक्षा की, जो महिलाओं और पुरुषों दोनों तक पहुंचे। तो इस महिला दिवस पर, जिसका पूरा व्यावसायिकरण हो चुका है और जिसकी इस साल की थीम है ‘सर्व सुलभ डिजीटल शिक्षा: लैंगिक समानता के लिए नवाचार और तकनीकी' (जो मुझे विरोधाभासी लगती है) आईए हम अपने अतीत की ओर देखें। और इस दिन को शिक्षा और शैक्षणिक समानता को समर्पित करें और आशा करें कि हम लैंगिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना कर सकेंगे। दूसरा विकल्प यह है कि हम आईसलैंड का टिकट कटा लें। मैंने सुना है कि वहां आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से लैंगिक अंतर सबसे कम है और महिला और पुरूष दोनों अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक जी रहे हैं। बहरहाल, आप सभी को मेरी ओर से हैप्पी वीमेन्स डे।

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