कांग्रेस नेता राहुल गांधी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अपने राजनीतिक अभियान के पहले चरण में यानी स्टेज वन में ही अटके हुए हैं। उनको स्टेज टू में जाने का रास्ता नहीं मिल रहा है। भारत जोड़ो यात्रा से लेकर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण देने तक वे इसलिए अपने को दोहरा रहे हैं क्योंकि जब तक पहले चरण में कामयाबी नहीं मिलती है तब तक दूसरा चरण शुरू करने का कोई फायदा नहीं होना है। यही वजह है कि कांग्रेस के नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस की विचारधारा के प्रति सद्भाव रखने वाले जानकार भी निराश होने लगे हैं। उनको लग रहा है कि राहुल आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। वे कोई नई बात नहीं कह रहे हैं।
वे सरकार की कमियां तो बता रहे हैं लेकिन उन कमियों को दूर करने के उपाय नहीं बता रहे हैं। वे विचारधारा के स्तर पर भाजपा का विरोध करके अपने कोर समर्थकों को अपने साथ मजबूती से जोड़ तो रहे हैं लेकिन नया वर्ग उनके साथ नहीं जुड़ रहा है। वे अनिश्चित मतदाताओं और हिचक के साथ भाजपा का समर्थन करने वाले मतदाताओं के समूह को अपने साथ जोड़ने में कामयाब नहीं हो रहे हैं।
ये सारी बातें अपनी जगह सही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पांच महीने की भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी को आगे बढ़ना चाहिए था। उस यात्रा से जो सद्भाव उन्होंने हासिल किया था और एक राजनेता के रूप में गंभीर छवि बनाई थी उसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास करना चाहिए था। लेकिन इसकी बजाय वे दो हफ्ते के लिए लंदन चले गए थे। उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण दिया, लंदन में भारतीय पत्रकारों से बात की, प्रवासी भारतीयों को संबोधित किया और ब्रिटेन की संसद में लेबर पार्टी के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। इन सभी कार्यक्रमों में राहुल गांधी ने वही सारी बातें दोहराईं, जो वे भारत जोड़ो यात्रा में कह रहे थे या उससे पहले भी संसद में और संसद से बाहर कह रहे थे।
उनकी बातों का लब्बोलुआब यह रहता है कि देश में सब कुछ खराब हो गया है। लोकतंत्र कमजोर हुआ है और खत्म होने की तरफ बढ़ रहा है। सारी संवैधानिक, वैधानिक और प्रशासनिक संस्थाओं पर भाजपा और आरएसएस ने कब्जा कर लिया है। देश में गरीबी और आर्थिक असमानता बढ़ रही है और देश आर्थिक रूप से तबाह होने की ओर बढ़ रहा है। सरकार सिर्फ चुनिंदा उद्योगपतियों के लिए काम कर रही है। संघवाद की अवधारणा खतरे में है। केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करके विपक्ष को समाप्त किया जा रहा है। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है, आदि आदि।
राहुल गांधी जो ये सब बातें कह रहे हैं, इसे विपक्ष की राजनीति का स्टेज वन माना जाता है। किसी भी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अभियान का पहला चरण सरकार की साख बिगाड़ने का होता है। उसकी विश्वसनीयता समाप्त करने की होती है। उसे अक्षम और असफल साबित करने की होती है। उसे भ्रष्ट और नकारा बताने की होती है। अगर विपक्ष इस स्टेज में कामयाब हो जाता है तब सकारात्मक और वैकल्पिक एजेंडा पेश करने का स्टेज टू शुरू होता है। हकीकत यह है कि राहुल गांधी और पूरा विपक्ष मिल कर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ स्टेज वन में सफल नहीं हो पा रहा है। विपक्ष तमाम प्रयास के बावजूद मोदी सरकार की साख नहीं बिगाड़ सका है। आम आदमी के बीच यह धारणा नहीं बना सका है कि सरकार काम नहीं कर रही है या सरकार भ्रष्ट है या इसकी विश्वसनीयता नहीं है।
स्टेज वन में विपक्ष की विफलता के कई कारण है, जिनमें दो मुख्य कारण हैं। पहला, विपक्ष की अपनी साख बहुत अच्छी नहीं है और दूसरा, मोदी सरकार विपक्ष के प्रयासों को लेकर सजग है और लगातार प्रचार के माध्यम से विपक्ष के आरोपों को काउंटर करती रहती है। साथ ही अपने सकारात्मक प्रचार में ढील नहीं देती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि काम होने से ज्यादा जरूरी यह है कि जनता की नजर में वे काम करते दिखें। तभी वे 24 घंटे काम करते रहने का नैरेटिव बनवाते हैं। उनका पूरा तंत्र दो काम में लगा होता है। पहला काम है विपक्ष की साख नहीं बनने देने का। एक तरफ केंद्रीय एजेंसियों से लेकर मीडिया तक के माध्यम से विपक्ष को भ्रष्ट, नकारा, वंशवादी आदि बताने का काम होता है और तो दूसरी ओर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की छवि चमकाई जाती है। जाने माने वकील कपिल सिब्बल ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा कि केंद्रीय एजेंसियों ने भाजपा के एक भी नेता के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। यह अनायास नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक योजना का हिस्सा है।
कांग्रेस के समर्थक और उसके प्रति सद्भाव रखने वाले भी यह सवाल उठाते हैं कि 2013-14 में जो काम नरेंद्र मोदी ने कर दिया वह काम राहुल गांधी और कांग्रेस क्यों नहीं कर पा रहे हैं। उनको यह समझना चाहिए 2013-14 में नरेंद्र मोदी को स्टेज वन से नहीं गुजरना पड़ा था। उनको अपनी तरफ से प्रयास करके तब की मनमोहन सिंह की सरकार की साख नहीं बिगाड़नी थी और न उसे अक्षम साबित करना था। उनके राष्ट्रीय क्षितिज पर आने से पहले ही वह काम हो चुका था। कुछ परिस्थितियों के कारण और कुछ अन्ना हजारे, रामदेव आदि के आंदोलन की वजह से सरकार पर भ्रष्टाचार का ठप्पा लग चुका था और वह विश्वसनीयता गंवा चुकी थी। मोदी को सिर्फ अपना वैकल्पिक एजेंडा पेश करना था।
यह काम उन्होंने गुजरात मॉडल और अच्छे दिन के प्रचार से बखूबी कर दिया। उन्होंने काला धन लाने से लेकर भ्रष्टाचार मिटाने तक का ऐसा मॉडल लोगों के सामने रखा कि लोग सहज रूप से उनके साथ चले गए। एक तो उनको बना बनाया माहौल मिला था और दूसरे उनके पीछे भाजपा व आरएसएस की बेहद संगठित ताकत थी। कह सकते हैं कि मोदी उस समय देश के राजनीतिक पटल पर उभरे थे जब पीड़ पर्वत सी हो गई थी और बर्फ पिघल कर हिमालय से गंगा का निकलना बाकी था, जबकि राहुल पिछले नौ साल से इस इंतजार में हैं कि कब पीड़ पर्वत जैसी होगी।
राहुल गांधी की मुश्किल यह है कि नौ साल के तमाम प्रयास के बावजूद न तो नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ वैसा माहौल बन पा रहा है, जैसा 2013-14 में मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ था और न उनकी पार्टी का वैसा मजबूत संगठन है, जैसा भाजपा और आरएसएस का था। इसलिए अगर उनके पास कोई वैकल्पिक विचार हो या सकारात्मक एजेंडा हो भी तो वे क्या कर सकते हैं! वे वैकल्पिक और सकारात्मक एजेंडा पेश करें यानी स्टेज टू में जाएं और विफल हो जाएं तो फिर क्या करेंगे? इसलिए उनकी कमी यह नहीं है कि वे एक ही बात को लेकर अटके हैं और हर जगह सिर्फ नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहते हैं। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता के नाते यह काम तो वे ठीक ही कर रहे हैं। उनकी कमी यह है कि स्टेज टू की तैयारी के लिए वे कांग्रेस का संगठन मजबूत नहीं कर रहे हैं। जब तक स्टेज वन पूरा नहीं होता है उनको कांग्रेस संगठन को मजबूत करना चाहिए। पूरे देश का दौरा करना चाहिए। कांग्रेस के हर कार्यकर्ता तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। इससे उन्हें नई दृष्टि और नई ताकत मिलेगी।