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हवा, भगदड़ में 58 सीटों की जमीन!

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हवा, भगदड़ में 58 सीटों की जमीन!
यूपी में दीये और तूफान की लड़ाई-3: हर कोई कहता है, हर कोई मानता है कि उत्तर प्रदेश में सरकार तो भाजपा की बनेगी। बहुमत नहीं तब भी भाजपा की सरकार। योगी आदित्यनाथ वापिस मुख्यमंत्री। यह धारणा भाजपा की ताकत है, उसका तूफान है। तब, इसके आगे भला दीये का, अखिलेश यादव का क्या मतलब? कुछ भी नहीं बशर्ते योगी आदित्यनाथ हिंदुओं को एकुजट किए हुए होते। वैसा नहीं है इसलिए मंत्रियों-विधायकों में भाजपा छोड़ने की भगदड़ बनी। इसके पीछे दलबदलुओं के निज स्वार्थ, निज अपमान, या भाजपा से मतदाताओं की नाराजगी की फीडबैक में किसी भी कारण को जिम्मेवार मानें पते की बात जात-बिरादरी में हिंदुओं का लौटना है। यूपी की राजनीति में स्वामी प्रसाद मौर्य को जात राजनीति का मौसम विज्ञानी माना जाता है। वैसे ही जैसे रामविलास पासवान थे। रामविलास भी मतदाताओं के मूड में मौसम को बूझकर पाला बदलते थे। वैसे ही स्वामी प्रसाद पार्टियां बदलते रहे हैं। तभी स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी आदि की पाला बदली की भगदड़ नरेंद्र मोदी, अमित शाह व यूपी संभाल रहे धर्मेंद्र प्रधान के लिए सदमा थी। इन्होने जरूर सोचा होगा कि यह कैसे और अब क्या? yogi adityanath akhilesh yadav निश्चित ही मोदी, शाह, योगी सब अब सशंकित हैं। बैकफुट पर हैं। प्लानिंग गड़बड़ाई है। तात्कालिक नुकसान वाली बात यह है कि धारणाओं में अखिलेश यादव को अब बराबर की टक्कर देते हुए माना जाने लगा है। दूसरी बात हिंदू मतदाताओं के बीच जातीय आधार पर सोचना बढ़ गया है। पिछड़ी जातियों और जात राजनीति के भंवर में भाजपा उलझी है। सोचें, पहले नरेंद्र मोदी की एक के बाद एक रैलियों-जनसभाओं का हल्ला था। केवल जय श्रीराम का नारा था। योगी का भगवा जलवा था। लेकिन लखनऊ के सपा दफ्तर में भाजपा छोड़ आए नेताओं के एक अकेले भौकाल से धारणा बदली और नई चर्चा। योगी ‘ठाकुर’ और ‘ठोको’ के नाते चर्चित। जातीय समीकरण में योगी लायबिलिटी। हां, कोई माने या न माने चार दिनों में ही मोदी-शाह ने योगी को ऐसा डंप किया कि योगी टीम की तैयारियों के बावजूद वे अयोध्या की बजाय गोरखपुर से चुनाव लड़ने को मजबूर हैं। वे उम्मीदवारों को तय करवाते हुए नहीं हैं। हल्ला शुरू हो गया है कि कुछ भी हो जाए चुनाव के बाद मोदी-शाह किसी सूरत में योगी आदित्यनाथ को वापिस मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे। बहुत संभव है यह हल्ला चुनाव के दो राउंड बाद (खास कर मध्य-पूर्वांचल मतदान के वक्त) ब्राह्मणों-पिछड़ी जातियों को पटाने के लिए और बढ़े। सचमुच एक लेवल पर केशव प्रसाद मौर्य, स्वामीप्रसाद मोर्य, सैनी, राजभर सबकी राजनीति वहीं आयाम लिए हुए है, जिस पर छह महीने पहले नरेंद्र मोदी भी सोचते हुए थे। मतलब पिछड़ों-ब्राह्मणों को नाराज कर योगी ने सब गुड़गोबर किया है इसलिए वहां एके शर्मा को बैठाओ। लखनऊ में प्रशासन की दशा-दिशा बदलो। घटनाओं से जाहिर है कि मोदी-शाह व यूपी के ओबीसी नेता एक ही अंदाज में योगी को फेल मानते हैं और उनसे पिंड छुड़वाने का दिमाग बनाए हुए हैं। फिर भले इसके लिए अंदर ही अंदर खिचड़ी क्यों न पके!  इसलिए भगदड़ के बड़े सियासी अर्थ हैं। भाजपा हाईकमान ने योगी का गोरखपुर टिकट तय कर अपनी कमान में चुनाव ले लिया है। उम्मीदवार तय करने में योगी का आखिर तक खास रोल नहीं होगा। मोदी-शाह-धर्मेंद्र प्रधान का पूरा फोकस अब सिर्फ पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों के वोट पटाने के माइक्रो प्रबंधन पर है। सर्वे में विधायकों के प्रति लोगों की नाराजगी की जो चिन्हित सीटें थीं वहां टिकट काटने का इरादा आधा-अधूरा हो गया है। पहले डेढ़ सौ टिकट तक कटने के अनुमान थे। मगर शुरुआती लिस्ट को यदि संकेत मानें तो बीस प्रतिशत से अधिक टिकट नहीं कटेंगे। मुश्किल से साठ-पैंसठ विधायकों के टिकट कटें। सो, भगदड़ का एक असर यह जो विधानसभा क्षेत्र के स्तर पर विद्रोह, भितरघात की भाजपा जोखिम नहीं लेगी। भाजपा की रणनीति के आयाम, डायमेंशन बदल गए हैं। अब सीटवार व्हाट्सऐप ग्रुपों से, सोशल मीडिया के प्रचार और मतदान से पहले के चार दिनों में घर-घर जनसंपर्क का कोर फोकस है। यों वोट अपने बनाने की मोदी-शाह की असेंबली लाइन में पहले भी माइक्रो प्रबंधन, बूथवार पर्चा प्रमुखों की प्रमुखता रही है। लेकिन इस चुनाव की असेंबली लाइन पूरी तरह लाभार्थी-खरीद लिस्ट से वोट बनाते हुए होगी। दूसरा कोई तरीका नहीं है। फिक्स हिंदू वोट के अतिरिक्त जीतने के लिए जो वोट चाहिए उसका जुगाड़ घर-घर की लाभार्थी लिस्ट से होगा। पिछले चुनावों की तरह प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा नेताओं की भीड़ की सभाओं से कारपेट बमबारी फिलहाल संभव नहीं है। कोरोना काल के चलते भी चुनाव बस्ती, गांव घर-मोहल्ले में जनसपंर्क या फोन से लड़ा जाएगा। ऐसा होना भाजपा के लिए फायदेमंद है तो नुकसानदायी भी। Read also अखिलेश क्या करें? नेताओं की जनसभाओं वाली कारपेट बमबारी वाली हवा नहीं होगी। लेकिन नीचे का जनसंपर्क तगड़ा होगा। विपक्ष के बस में भाजपा की आईटी टीम, पैसे और फंड के माइक्रो प्रबंधन से मुकाबला संभव नहीं होगा। फिर भाजपा के लिए दूसरे प्रदेशों के कार्यकर्ता भी गांव-गांव डेरा डाले बैठे होते हैं। इस सबके आगे अखिलेश-जयंत के भानुमती के कुनबे के बस में क्या रणनीति बनाना संभव है? उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, उसका प्रशासन है तो मतदाताओं को सरकार से हुए लाभ गिनाने मुश्किल नहीं हैं। अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और उनके एलायंस की बाकी पार्टियों के नेताओं को शायद मालूम ही नहीं हो कि भाजपा के कॉल सेंटर से लेकर आईटी टीम और कार्यकर्ता समूह सब बूथ की पर्चा प्रमुख टीम के जरिए लाभार्थियों की लिस्ट ले कर घर-घर जनसंपर्क शुरू कर चुके हैं। अपने को यह खबर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहले राउंड की 58 सीटों पर जमीनी पकड़ रखने वाले जानकारों से मिली है। गांव-देहात-चौपाल, मोहल्लों के स्तर पर भाजपा की सर्वे टीम से लेकर पर्चा प्रमुख टीम लोगों के बीच बहुत पहले से सक्रिय है। नए-नए तरीके सुनने को मिल रहे हैं। जैसे जाटों में यह चर्चा कराने की कोशिश की रालोद और सपा को जीता भी दिया तब भी सरकार तो भाजपा की बनेगी। जयंत चौधरी ही भाजपा की सरकार बनवाएंगे। जाहिर है सर्वे के बहाने भी जाट मतदाता को उलझाने की कोशिश। इस तरह की कनविंसिंग पर एक बुजुर्ग जाट का जवाब था- लाली (लड़की), जयंत क्या करेगा यह बाद में देखेंगे पहले उसे (नरेंद्र मोदी) हराना है! मान सकते हैं पश्चिम यूपी में जाट मतदाताओं का मूड बदलना भाजपा की नंबर एक चुनौती है। यह कैसे बदल सकता है? हिंदू-मुस्लिम याकि जाट बनाम मुस्लिम का दंगा-फसाद फिलहाल अपने को संभव नहीं लगता है। जब भाजपा के उम्मीदवार-कार्यकर्ता जाटों के बीच पहले की तरह घूम भी नहीं पा रहे हैं तो उनको भड़काना-उकसाना व 10 फरवरी से पहले पानीपत की तीसरी लड़ाई के लिए मना सकना मुश्किल है। तभी जमीनी प्रबंधन पर अधिक काम होगा। जिन लोगों ने भाजपा को 2017-19 में वोट दिया उनकी लिस्ट में सरकार से लाभ लिए लोगों को छांट कर उन्हें मनाने-समझाने-ललचाने, खरीदने का प्रबंधन भाजपा का ब्रह्मास्त्र होगा। किसान के खाते में छह हजार रुपए की नकदी, सिलेंडर, राशन, शौचालय, मकान, पेंशन आदि के जितने भी लाभ योगी-मोदी सरकार से घरों को मिले हैं उसके हवाले पटा कर या पंच-सरपंच को उनका ठेका देकर ईवीएम मशीन का चमत्कार बनेगा। इस सबके मुकाबले अखिलेश-जयंत के पास क्या है? तभी लड़ाई सचमुच दीये बनाम तूफान की है। लोग अपने आप ही कुछ करें तो बात अलग है अन्यथा अखिलेश, जयंत चौधरी भाजपा के माइक्रो प्रबंधन का मुकाबला नहीं कर सकते। नाराज जाटों के बीच भले भाजपा की बात नहीं बने मगर बाकी वोटों, पिछड़ी जातियों पाल, सैनी, प्रजापति, कश्यप, गुर्जर आदि में तो भाजपा का प्रबंधन कारगर होगा। या यह माना जाए कि जातिवादी राजनीति के चलते भाजपा को इनसे भी धोखा मिलेगा? जात राजनीति से ही यह दलील है कि इस दफा अखिलेश-जयंत चौधरी ने जाट के साथ अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में खड़ा किया है। ध्यान रहे पहले राउंड की 58 सीटों पर सभी के उम्मीदवार घोषित हो चुके हैं। इन्हीं के विश्लेषण में माना जा रहा है कि भाजपा के पुराने चेहरे, जहां एंटी इनकम्बेंसी लिए हुए हैं वहीं सपा-रालोद के नए उम्मीदवार सामाजिक-आर्थिक व इमेज की कसौटी में भारी हैं। इस इलाके में रालोद के लिए जाट और गुर्जर एक साथ वोट करें, यह संभव नहीं माना जाता था लेकिन सपा-रालोद की लिस्ट में दमदार गुर्जर उम्मीदवार होने से यह धारणा टूट सकती है। ऐसे ही मुस्लिम उम्मीदवारों में सपा-रालोद ने सावधानी बरती। हिंदू-मुस्लिम हल्ला नहीं होने दिया। शायद पहली बार है जो मुजफ्फरनगर जिले की पांच सीट में अखिलेश यादव ने एक मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा। इसलिए पहले राउंड की 58 सीटों में जहां जातीय राजनीति का हिसाब निर्णायक है तो यहीं से आगे की दिशा जाहिर होगी। भाजपा के कट्टर वोटों में हिंदू-मुस्लिम रहेगा लेकिन इधर-उधर होने वाले जातीय वोटों में नहीं। इसलिए इन 58 सीटों में भाजपा पिछले चुनाव जैसा प्रदर्शन कर पाएं, यह संभव नहीं है। उम्मीदवारों की लिस्ट के बाद भाजपा समर्थकों का अनुमान, जहां भाजपा की बीस सीटों का है वहीं विरोधी भाजपा की दस से बीस सीट का अनुमान लगाए हुए हैं। मैं अनुमान नहीं लगा रहा हूं क्योंकि बूथ लेवल पर, मतदान से तीन-चार दिन पहले भाजपा का माइक्रो प्रबंधन जबरदस्त होगा इसलिए अनुमान धोखा खा सकता है। यह संभव होता लगता नहीं है कि भाजपा के प्रबंधन की तोड़ में सपा-रालोद उम्मीदवार और कार्यकर्ता भी अपनी फौज उतार पाएं, भाजपा कार्यकर्ताओं को लाचार बना दे और पैसा खर्च कर सकें! तभी पहले राउंड का जब मतदान हो जाएगा और जमीनी प्रबंधनों के अनुभव में स्थानीय जानकारो से फीडबैक मिलेगी तब संभव हो सकेगा अनुमान लगाना।
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