निर्णय का सार क्या है? दो स्थितियां ही हो सकती हैं। या तो अभियोग पक्ष ने अपना काम मुस्तैदी और दोषमुक्त ढंग से नहीं किया। या फिर पुलिस ने मामूली शक के आधार पर निर्दोष लोगों को पकड़ लिया।
मुंबई की सात उपनगरीय ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 को हुए धमाकों ने सारे देश को आहत किया था। मिनटों में 187 मुसाफिरों की जान चली गई, जबकि 824 लोग जख्मी हो गए। यह सोचना दिमाग को भौंचक कर देता है कि भारतीय कानून के हाथ इतने बड़े कांड के एक भी मुजरिम तक नहीं पहुंच पाए। जिन 13 अभियुक्त को पकड़ा गया, वे सब अब बरी हो गए हैँ। एक आरोपी तो निचली अदालत में ही छूट गया था और जिन 12 को वहां सज़ा हुई, उन सबको बॉम्बे हाई कोर्ट ने बरी कर दिया है। इनमें पांच को मृत्युदंड और सात को उम्र कैद सुनाई गई थी।
हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोग पक्ष आरोपियों के जुर्म को साबित करने में नाकाम रहा। कोर्ट ने पड़ताल की कई खामियों का उल्लेख किया। इनमें गवाहों का व्यवहार, विस्फोटकों की बरामदगी में नाकामी, और अभियुक्तों को यातना देकर इकबालिया बयान लेने के प्रयास शामिल हैं। इस निर्णय का सार क्या है? दो स्थितियां ही हो सकती हैं। या तो अभियोग पक्ष ने अपना काम मुस्तैदी और दोषमुक्त ढंग से नहीं किया। या फिर पुलिस ने जानबूझ कर अथवा मामूली शक के आधार पर निर्दोष लोगों को पकड़ लिया। इन दोनों ही स्थितियों में भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था कठघरे में खड़ी होती है।
अगर इतने बड़े कांड में अभियोजन पक्ष दोषमुक्त केस तैयार नहीं कर सकता है, तो फिर इस देश में कानून का रुतबा कैसे कायम रह सकेगा? अगर दूसरी स्थिति सच है, तो यह और भी निराशजनक है। उस स्थिति का मतलब होगा कि 12 लोगों की जिंदगी के 19 महत्त्वपूर्ण वर्ष उनसे देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था ने छीन लिए। इस बीच उन्हें और उनके परिजनों को जिस भावनात्मक पीड़ा से गुजरना पड़ा, उन्हें जो आर्थिक मुश्किलें झेलनी पड़ीं और आतंकवाद का दाग लगने के कारण उनकी प्रतिष्ठा को जो क्षति पहुंची, उसकी भरपाई कैसे होगी? इसकी जवाबदेही कैसे तय की जाएगी? हालांकि अभियोग पक्ष के पास अभी सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प है, फिर भी हाई कोर्ट में जो हुआ, उससे विवेकशील लोगों में उचित व्यग्रता पैदा हुई है।