जब अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा घटते हुए लगभग हाशिये पर पहुंच चुका है, सरकारी नौकरियों में आरक्षण से कुछ हजार या लाख लोगों को ही काम मिल सकता है, लेकिन उससे पिछड़े समाज का कायापलट नहीं हो सकता।
यह तो साफ है कि बिहार के जातीय सर्वेक्षण से राज्य की सामाजिक संरचना के बारे में कोई आंख खोल देने वाले वाली जानकारी नहीं मिली। बिहार की कुल आबादी में विभिन्न जातीय वर्गों के प्रतिशत के बारे में मोटे तौर पर पहले से मौजूद आम अनुमान के अनुरूप ही जानकारी सामने आई है। तो अब सवाल मौजूं हो गया है कि जातीय सर्वे कराने के बाद बिहार में सत्ताधारी महागठबंधन के पास आगे क्या एजेंडा है? क्या उसने कोई ऐसी योजना तैयार कर रखी है, जिससे विकास के क्रम में पीछे रह गई जातियों और उन जातियों के भी अपेक्षाकृत गरीब वर्गों को आगे लाया जा सकेगा? अगर मुद्दा सिर्फ आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठा कर जातीय गोलबंदी करना है, तो इससे बात नहीं बनेगी। जब अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा घटते हुए लगभग हाशिये पर पहुंच चुका है, सरकारी नौकरियों में आरक्षण से कुछ हजार या लाख लोगों को ही काम मिल सकता है, लेकिन उससे पिछड़े समाज का कायापलट नहीं हो सकता।
भारत के मौजूदा संवैधानिक ढांचे के अंदर निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग महज एक दिवास्वप्न है। वैसे भी जब भारतीय पूंजी का बाहर जाना एक प्रमुख रुझान बन गया है, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एवं रॉबोटिक्स का उपयोग बढ़ रहा है, भारत के निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आम नौकरियों के पैदा होने की संभावना नहीं दिखती। वहां नौकरियां उन लोगों को ही मिलेंगी, जिन्होंने उच्च आधुनिक कौशल हासिल किया हो। इसलिए यह पूछा जाएगा कि उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने क्या काम किया है, जिनके हाथ में पिछले 33 साल से बिहार की बागडोर रही है? जहां तक प्रतिनिधित्व की बात है, तो क्या महागठबंधन अगले चुनावों में विभिन्न जातियों/धर्मों के व्यक्तियों को आबादी में उनके अनुपात के हिसाब से टिकट देने का निर्णय लेगा? मुद्दा यह भी है कि अगर ज्यादा संख्या दलित और अति पिछड़ी जातियों की है, तो तेजस्वी यादव या नीतीश कुमार को क्या महागठबंधन का नेतृत्व उनमें से किसी जाति के नेता को नहीं सौंप देना चाहिए?