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अपनी कहानी दोहरानी है!

ये बुनियादी सवाल दब-से गए हैं कि अगर तस्वीर इतनी खुशहाल है, तो साल 2019 में सरकार ने उपभोग व्यय संबंधी सर्वेक्षण रिपोर्ट को क्यों जारी करने से इनकार कर दिया था? सरकार की जनगणना कराने में क्यों रुचि नहीं है?

नरेंद्र मोदी सरकार को इस बात का पूरा यकीन है कि वो जो कहानी सुनाएगी, उनके समर्थक मतदाता बस उतना ही सुनेंगे। उसका यह यकीन निराधार भी नहीं है। चूंकि मेनस्ट्रीम मीडिया के अधिकांश हिस्से ने अपने स्वतः रुझान या बनाई गई परिस्थितियों के कारण खुद को सत्ताधारी दल के प्रचार तंत्र में तब्दील कर दिया है, इसलिए किसी वैकल्पिक कथानक का आम जन तक पहुंचना सचमुच बहुत कठिन हो गया है। ऐसे में लोग सरकारी दावों पर सहज यकीन करें, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं है। मसलन, इन दावों पर कि देश में 25 करोड़ लोगों को गरीबी से निकाला गया है और भारत में चारों तरफ खुशहाली का आलम है। इस शोर के बीच ये बुनियादी सवाल दब-से गए हैं कि अगर ऐसा है, तो साल 2019 में सरकार ने उपभोग व्यय संबंधी सर्वेक्षण रिपोर्ट को क्यों जारी करने से इनकार कर दिया था? सरकार की जनगणना कराने में क्यों रुचि नहीं है? दशकीय जनगणना 2021 में ही तय थी। तब कोरोना महामारी के कारण उसे टाला गया, हालांकि उस दौर में भी चुनाव जैसे सघन जन-संपर्क के कार्य आयोजित हुए।

तब के बाद आम जिंदगी सामान्य हो चुकी है, लेकिन जनगणना कहीं सरकार के एजेंडे में नहीं है। अगर जनगणना होती, तो उससे आधिकारिक आंकड़े प्राप्त होते और यह मालूम होता कि जमीनी स्तर पर आम जन की कैसी हालत है। मगर वर्तमान सरकार का नजरिया प्रतिकूल आंकड़ों को सामने ना आ देने का रहा है। तस्वीर बेहतर दिखाने के लिए पैमानों की परिभाषा बदल देना उसकी दूसरी बड़ी तरकीब रही है। मसलन, 2015 में वास्तविक आर्थिक वृद्धि दर को मापने का आधार बदल दिया गया। इससे वास्तविक वृद्धि दर बेहतर नजर आने लगी। इसके अलावा रोजगार की सूरत बेहतर दिखाने के लिए आवधिक श्रम शक्ति सर्वे में स्वरोजगार की एक नई श्रेणी जोड़ दी गई, जिससे पारिवारिक कारोबार में सहयोग करने वाले अवैतनिक कर्मियों को भी रोजगार-शुदा माना जाने लगा। लेकिन परिभाषाएं बदलने से असली हाल नहीं बदल गए हैं। मगर सरकार को उसकी चिंता भी नहीं है। उसकी जुगत सिर्फ यह है कि आर्थिक सुर्खियां खुशहाल तस्वीर पेश करती रहें।

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