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प्रतिगामी दौर में अमेरिका

कंजरवेटिव जजों ने इस दलील को नहीं माना कि माइफप्रिस्टोन का इस्तेमाल जारी रखने या ना रखने का फैसला एफडीए पर छोड़ देना चाहिए। यह हैरतअंगेज है। प्रश्न है कि दवा के बारे में निर्णय विशेषज्ञ समिति नहीं, तो और कौन करेगा?

अमेरिका में घड़ी की सूई उलटी दिशा में चल रही है। जिस देश की पहचान व्यक्तिगत स्वतंत्रता से रही है, वहां चिकित्सा विज्ञान से स्वीकृत गर्भपात की दवा एक वयस्क महिला कब और कितनी मात्रा में खाएगी, इसे तय करने के कानून बनाए जा रहे हैं। देश के एक फेडरल कोर्ट ने ऐसी दवा के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है। गनीमत यह है कि यह रोक अभी अमल में नहीं आई है। फेडरल कोर्ट का फैसला तब तक अमल में नहीं आएगा, जब तक यह साफ नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई करने का इच्छुक है या नहीं। लेकिन यह सारा मामला ही पिछले सुप्रीम कोर्ट के आए एक फैसले से गरमाया, जिसके जरिए गर्भपात को वैध ठहराने एक पचास साल पुराने फैसले को पलट दिया गया। इसीलिए इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के रुख को लेकर आशंकाएं हैं। इस मामले में न्यू ओरलिएंस स्थित कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने कहा कि माइफेप्रिस्टोन नाम की यह दवाई को गर्भावस्था के शुरुआती सात हफ्तों में ही लिया जा सकेगा।

इसके साथ ही इसे डाक से मंगाने पर भी रोक लगा दी गई है। जाहिर है, कोर्ट के इस कदम ने महिलाओं के शरीर और प्रजनन के अधिकार संबंधी बहस को एक बार फिर गरम कर दिया है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में होने वाले आधे से ज्यादा गर्भपात  के मामलों में इस दवा का उपयोग होता है। फैसला सुनाने वाली न्यायिक बेंच में शामिल तीनों कंजरवेटिव जजों की नियुक्ति दो पूर्व राष्ट्रपतियों डॉनल्ड ट्रंप और जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने। रूढ़िवादी समूह लंबे समय से माइफेप्रिस्टोन को बैन करने की मांग करते रहे हैं। जबकि अमेरिका के फूड ऐंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने साल 2000 में इस दवा को मान्यता दी थी और 2016 से यह सार्वजनिक रूप पर उपलब्ध रही है। इस मामले की सुनवाई के दौरान जजों ने सरकार की इस दलील को नहीं माना कि माइफप्रिस्टोन का इस्तेमाल जारी रखने या ना रखने का फैसला एफडीए पर छोड़ देना चाहिए। यह हैरतअंगेज है। प्रश्न उठा है कि दवा के बारे में निर्णय विशेषज्ञ समिति नहीं, तो और कौन करेगा?

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