एआई भविष्य संवारने का आधार है, जिसका वर्तमान शुरू हो चुका है। भारत आखिर इसकी छिड़ी होड़ में कहां है? वैसे बताया जाता है कि ग्लोबल एआई रैंकिंग में उन दो देशों के अलावा ब्रिटेन के बाद भारत चौथे नंबर पर है।
अमेरिका में राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद डॉनल्ड ट्रंप ने अपनी पहली बड़ी पहल आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के क्षेत्र में की है। उन्होंने चार बड़ी कंपनियों के साझा उद्यम- स्टारगेट की शुरुआत की है। ओपेन एआई, ऑरेकल, सॉफ्ट बैंक और एमजीएक्स इसके तहत एआई केंद्रित बुनियादी ढांचे के विकास पर 500 बिलियन डॉलर खर्च करेंगी। ट्रंप प्रशासन में प्रभावशाली हैसियत रखने वाले टेक अरबपति एलन मस्क ने इस पर जो तंज कसा है, वह अमेरिका के अंदरूनी कॉरपोरेट टकराव का हिस्सा है। मस्क ने कहा कि इन कंपनियों के पास इतना निवेश करने लायक पैसा ही नहीं है।
बहरहाल, मुद्दा यह नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि ट्रंप प्रशासन ने भविष्य पर निगाह रखते हुए एआई क्षेत्र में छिड़ी होड़ के बीच अमेरिका को अग्रणी बनाए रखने की पहल की है। एआई में चीन दूसरी बड़ी ताकत के रूप में उभरा है। आम समझ है कि इन दोनों देशों में एआई का अलग-अलग मकसदों के लिए उपयोग किया जा रहा है। जहां चीन ने इस नई तकनीक को उत्पादन के एक पहलू (फैक्टर) के रूप में लिया है, वहीं अमेरिका में इसके जरिए उपभोक्ता सेवाओं को सुगम बनाने को प्राथमिकता दी गई है। अपने अलग नजरियों के साथ ये दोनों देश पहले ही उन क्षेत्रों में बढ़त बना चुके हैं। उन्होंने इस बात को समझा है कि एआई भविष्य संवारने का आधार है, जिसका वर्तमान शुरू हो चुका है।
सवाल यह है कि भारत इस होड़ में कहां है। वैसे तो बताया जाता है कि ग्लोबल एआई रैंकिंग में उन दो देशों के अलावा ब्रिटेन के बाद भारत चौथे नंबर पर है। लेकिन समस्या है कि भारत में जो लगभग 150 डेटा सेंटर बने या बनाए जा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर अमेरिकी कंपनियां लगा रही हैं। ये कंपनियां सस्ता श्रम और अन्य रूपों में लागत घटाने के मकसद से भारत जैसे देशों में जाती हैं। जबकि मुद्दा तकनीक साझा करने का है, ताकि ना सिर्फ भारत में एआई की क्षमता बढ़े, बल्कि यहां देसी जरूरतों के मुताबिक समाधान विकसित हो सकें। इसके बिना भारत की भूमिका सर्विस प्रोवाइडर भर की रह जाएगी।