अगली सरकार चूंकि वास्तविक अर्थ में गठबंधन सरकार होगी, इसलिए सहयोगी दलों की मांगों और महत्त्वाकांक्षाओं को इस बार भाजपा नेतृत्व को पूरा करना ही होगा। इसके लिए मोल-भाव की खबरें अभी से गर्म हैं, जिनका ज्यादा गहरा असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।
लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को आतुर नरेंद्र मोदी ने असाधारण फुर्ती दिखाई। चुनाव नतीजे घोषित होने के अगले ही दिन उन्होंने भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन- एनडीए के घटक दलों की बैठक बुला ही। उसी बैठक में उन्होंने सभी दलों से समर्थन का पत्र भी हासिल कर लिया। स्पष्टतः इस तेजी का मकसद इस आशंका को दूर कर करना था कि कुछ सहयोगी दल- खासकर जनता दल (यू) और तेलुगू देशम पार्टी- कहीं छिटक ना जाएं। कहा जा सकता है कि इस संबंध में अटकलों पर तुरंत विराम लगाने में उन्हें फिलहाल कामयाबी मिली है। इससे आज एनडीए संसदीय दल में उनके नेता चुने जाने और संभवतः शनिवार को शपथ ग्रहण कर लेने का रास्ता साफ हो गया है।
लेकिन इससे यह मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि सरकार सहज गठन और गठबंधन के सुचारू संचालन की संभावना भी बन गई है। अगली सरकार चूंकि वास्तविक अर्थ में गठबंधन सरकार होगी, इसलिए सहयोगी दलों की मांगों और महत्त्वाकांक्षाओं को इस बार भाजपा नेतृत्व को पूरा करना ही होगा। इसके लिए मोल-भाव की खबरें अभी से गर्म हैं, जिनका ज्यादा साफ असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। यह आम धारणा रही है कि मोदी राज में कैबिनेट सिस्टम बेमतलब हो गया है।
मंत्रिमंडल की बैठकें आम तौर पर पहले से पीएमओ में लिए जा चुके फैसलों पर मुहर लगाने के लिए होती हैं। क्या मोदी को नए कार्यकाल में यह सुविधा प्राप्त होगी? संभव है कि यह हो, लेकिन उसके बदले सत्ता और सुविधाओं में भागीदारी की सहयोगी दलों की मांगों को उन्हें पूरा करना होगा। भारत में गठबंधन सरकारों का अनुभव यह है कि क्षेत्रीय और छोटे सहयोगी दलों की नीतिगत मामलों में दिलचस्पी नहीं होती। तो शायद इस बार भी वे विदेश एवं वित्तीय मामले में मोदी सरकार की दिशा में दखल ना दें। इसके बावजूद चुनौती विशेष राज्य का दर्जा जैसे मांगों से आएगी, जिसका असर राजकोषीय सेहत पर पड़ेगा। उसका परोक्ष प्रभाव वित्तीय नीति पर पड़ेगा। निष्कर्ष यह कि गठबंधन को सुरक्षित रखना फिलहाल जितना आसान नजर आया है, उसे चलाना उतना सहज नहीं साबित होगा।