अमेरिका ने अब प्रतीकात्मक तौर पर भी जलवायु परिवर्तन की चिंता छोड़ दी है। इससे बहुत से दूसरे देश भी इस राह पर चलने को प्रेरित हो सकते हैं। बहरहाल, ट्रंप की नीति से अमेरिका अपने वातावरण को दूषित करने की तरफ बढ़ेगा।
डॉनल्ड ट्रंप ने ह्वाइट हाउस में लौटते ही जो फैसले सबसे पहले लिए, उनमें एक जलवायु परिवर्तन पर पेरिस संधि से अमेरिका को निकालने का है। वैसे तो रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपतियों का जलवायु संरक्षण संबंधी वचनबद्धताओं से गुरेज नई बात नहीं है, मगर ट्रंप ने इस निर्णय के साथ ही ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ के अपने नारे को अपने प्रशासन की नीति बनाने का एलान भी किया है। इसका अर्थ है कि अमेरिका में फ्रैकिंग तकनीक से शेल गैस एवं कच्चा तेल निकालने पर लगी रोक खत्म हो जाएगी। इस तरह जीवाश्म ऊर्जा का उपयोग घटाने की नीति ठुकरा दी गई है।
अब अमेरिका में कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस और कोयला आदि का औद्योगिक स्तर पर इस्तेमाल बेरोक ढंग से हो सकेगा। अमेरिकी तेल कंपनियों के लिए यह बड़ी खुशखबरी है। साथ ही जीवाश्म ऊर्जा के अपेक्षाकृत किफायती इस्तेमाल से अन्य कंपनियां भी मुनाफा बढ़ा पाएंगी। मगर इसकी कीमत अमेरिका का वातावरण चुकाएगा, जिसकी मार अंततः सब पर पड़ेगी। लॉस एंजिल्स का हालिया अग्निकांड इसका सबूत है। जहां तक संपूर्ण धरती के जलवायु का प्रश्न है, तो उसे बचाने की दिशा में अमेरिका का योगदान पहले भी न्यूनतम ही था। चिंताजनक तो यह है कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से जलवायु संरक्षण में अग्रणी रहे यूरोप ने भी अपना रास्ता बदल लिया है। इसके बीच पेरिस संधि में किए गए वादे महज प्रतीकात्मक ही बनते चले गए थे।
ताजा घटनाक्रम का संदेश है कि अमेरिका ने प्रतीकात्मक तौर पर भी जलवायु परिवर्तन की चिंता छोड़ दी है। इससे बहुत से दूसरे देश भी इस राह पर चलने को प्रेरित हो सकते हैं। बहरहाल, ट्रंप की नीति से अमेरिका अपने वातावरण को दूषित करने की तरफ बढ़ेगा। 1990 के दशक में अमेरिकी उद्योगों को चीन एवं अन्य विकासशील देशों में भेजने की नीति के पैरोकार दलील देते थे कि इससे अमेरिका ने अपने वातावरण को बचा सकेगा। मगर अब ये बात नहीं रही। तो इसका असर कुछ वर्षों के अंदर ही वहां को लोग देखेंगे। जलवायु परिवर्तन का असर तो बाकी दुनिया के साथ वे पहले से ही झेल रहे हैं।