मौजूदा हालात के प्रति जन असंतोष हद पार करने लगा है और उसका लाभ विपक्ष को मिल रहा है। क्या हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों से इस बात की पुष्टि होगी, फिलहाल राजनीति के अध्येताओं का ध्यान इस पर टिका हुआ है।
लोकसभा चुनाव में देश की सियासी फिज़ा बदलने के ठोस संकेत मिले। उसके बाद कुछ उपचुनाव नतीजों ने संदेश दिया कि ये संकेत अब रुझान का रूप ले रहे हैं। एग्जिट पोल्स के अनुमान सही हुए, तो हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभाओं के चुनाव नतीजे इस बात पुष्टि कर सकते हैं कि वह रुझान अब ठोस रूप लेने लगा है। ठोस रूप ले चुका है या नहीं, इसके लिए अगले महीने तक महाराष्ट्र और झारखंड में होने वाले चुनाव के नतीजों का इंतजार करना होगा। लोकसभा चुनाव में संकेत यह मिला था कि नरेंद्र मोदी का चेहरा अब भाजपा के लिए वोट बढ़ाने की गारंटी नहीं है। ना ही हिंदुत्व से संबंधित मुद्दों का ओवरडोज लोगों में भाजपा के प्रति उत्साह भर रहा है। उनके विपरीत रोजी-रोटी के सवाल लोगों के मन में प्राथमिकता बन गए हैँ।
यह ठीक है कि इन सवालों पर विपक्ष ने भी कोई वैकल्पिक नीति या कार्यक्रम पेश नहीं किया है। विपक्षी दल भी मोटे तौर पर जज्बाती सियासत के फॉर्मूले में बंधे नजर आते हैं। इसके बावजूद चूंकि आम लोगों में मौजूदा हालात के प्रति असंतोष हद पार करने लगा है, इसलिए इसका लाभ विपक्ष को मिल रहा है। क्या कल आने वाले हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों से इन्हीं बातों की पुष्टि होगी, फिलहाल राजनीति के गंभीर अध्येताओं का ध्यान इसी सवाल पर टिका है।
वैसे चुनावों के इस दौर में जम्मू-कश्मीर मतदाताओं का जो उत्साह देखने को मिला, उससे ठोस सकारात्मक संकेत देश को मिल चुका है। वहां के आम मतदाताओं ने भी वोट के जरिए भावनाएं जताने के लोकतांत्रिक चलन में अपना भरोसा दिखाया, जो वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए आश्वस्त करने वाला पहलू है। उन्होंने वोट के जरिए किस दल (या दलों) को जनादेश दिया, यह पहलू अपने आप में महत्त्वपूर्ण होगा, लेकिन चुनावी लोकतांत्रिक प्रणाली में बढ़-चढ़ कर की गई भागीदारी का कहीं अधिक दूरगामी महत्त्व समझा जाएगा। चूंकि एग्जिट पोल्स की साख बेहद घट चुकी है, इसलिए दोनों राज्यों की जनता ने असल फैसला किसके पक्ष में दिया है, इसे जानने के लिए मतगणना के प्रति जिज्ञासा और रोमांच बने हुए हैँ।