यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठा है कि जब मेजबान देश ही जलवायु सम्मेलन का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन रोकने के मकसद के खिलाफ कर रहा हो, तो फिर ऐसे आयोजन की क्या प्रासंगकिता रह जाती है?
जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की कॉप (कॉन्फरेंस ऑफ पार्टीज) प्रक्रिया की प्रासंगिकता पर अब वाजिब सवाल उठ रहे हैँ। फिलहाल इस प्रक्रिया के तहत 28वां सम्मेलन संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में हो रहा है। वैसे भी पिछले 27 सम्मेलनों में यह प्रक्रिया ज्यादा कुछ हासिल करने में नाकाम रही। लेकिन तब कम-से-कम इतना होता था कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर सारी दुनिया एक स्वर से चिंता जताती थी। मगर यूएई में तो खुद मेजबान ने अब बनी मूलभूत समझ को चुनौती दे दी है। यूएई का राष्ट्रपति होने के नाते सुल्तान अल जबर कॉप-28 के अध्यक्ष हैं। इस महत्त्वपूर्ण भूमिका में होने के कारण उनकी राय ने दुनिया भर का ध्यान खींचा है। सुल्तान अल जबर ने कहा कि ऐसा कोई विज्ञान मौजूद नहीं है, जो जीवाश्म ऊर्जा का उपयोग चरणबद्ध ढंग से घटाने की जरूरत बताता हो। ऐसा आप तभी कर सकते हैं, जब आपने दुनिया को गुफाओं में वापस धकेल देने का इरादा कर लिया हो।
इसके साथ ही ये तथ्य चर्चित हुआ कि अल जबर यूएई की राष्ट्रीय तेल कंपनी एडीएनओसी के अध्यक्ष भी हैं। इस रूप में तेल के कारोबार को जारी रखने के साथ उनका स्वार्थ जुड़ा हुआ है। इस बीच बीबीसी ने ई-मेल की लीक हुई एक शृंखला के आधार पर एक बड़ा खुलासा किया है कि यूएई ने कॉप-28 सम्मेलन के मौके पर तेल और गैस के सौदे करने- यानी अपने कारोबार को बढ़ाने की एक बड़ी योजना बनाई थी। संभवतः कॉप-28 के दौरान उस पर अमल भी हो रहा है। तो ये प्रश्न उठा है कि जब मेजबान जलवायु सम्मेलन का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन रोकने के मकसद के खिलाफ कर रहा हो, तो फिर ऐसे आयोजन की क्या प्रासंगकिता रह जाती है? अब तक यह कहा जाता था कि भले कॉप प्रक्रिया से ठोस कुछ हासिल ना होता हो, लेकिन कम-से-कम इस मौके पर होने वाली चर्चाओं से दुनिया में जलवायु समस्या को लेकर जागरूकता फैलती है। यह सच भी है। लेकिन इस बार तो खुद सम्मेलन के अध्यक्ष ने उस समझ को चुनौती दे डाली है, जो दशकों के प्रयास से बनी है।