जिस दौर में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं का लगातार निजीकरण होता गया हो- यानी जब ये सेवाएं मुनाफा प्रेरित सेवाओं में तब्दील हो गई हों और परिवहन लगातार महंगा होता जा रहा हो, सामाजिक सुरक्षाओं का सिकुड़ना गंभीर चिंता का पहलू है।
भारत सरकार के पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) से सामने आया यह आंकड़ा चिंताजनक है कि देश की श्रमशक्ति में 2022-23 में सिर्फ 21 प्रतिशत ऐसे कर्मचारी थे, जिन्हें नियमित तनख्वाह मिलती हो। 2019-20 में यह संख्या 23 प्रतिशत थी। यानी तीन साल में स्थायी नौकरी वाले कर्मचारियों की संख्या दो प्रतिशत गिर गई। इस सर्वे से सामने आया चिंता का दूसरा पहलू यह है कि इन कर्मचारियों के बीच सिर्फ 46 प्रतिशत ऐसे हैं, जिन्हें सामाजिक सुरक्षाएं मिली हुई हैं। सामाजिक सुरक्षाओं से तात्पर्य पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, मातृत्व लाभ और ग्रैच्युटी है। 2018-19 में नियमित तनख्वाह वाले 49 प्रतिशत कर्मचारियों को ऐसी सुविधाएं मिली हुई थीं। ये आंकड़े देश की कैसी तस्वीर पेश करते हैं, इसे समझने के लिए हमें इनको बड़े संदर्भ में देखना चाहिए। भारत में श्रम शक्ति उम्र वर्ग (15 से 60 वर्ष) में तकरीबन 95 करोड़ लोग हैं। लेकिन श्रम शक्ति में (यानी वे लोग जिन्हें रोजगार मिला हुआ है या रोजगार की तलाश में हैं) इस उम्र वर्ग के 45-46 प्रतिशत लोग हैं।
यानी लगभग 45 करोड़। उनके बीच 21 प्रतिशत- यानी साढ़े आठ करोड़ लोगों को नियमित तनख्वाह वाला काम मिला हुआ है। उनके 46 प्रतिशत यानी तकरीबन साढ़े चार करोड़ लोगों को सामाजिक सुरक्षाएं हासिल हैं। बाकी लोग या तो पारिवारिक सहायता (अगर परिवार सक्षम हो तो) निर्भर हैं, या फिर भगवान भरोसे हैं। जिस दौर में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं का लगातार निजीकरण होता गया हो- यानी जब ये सेवाएं मुनाफा प्रेरित सेवाओं में तब्दील हो गई हों और परिवहन लगातार महंगा होता जा रहा हो, आम शख्स की माली हालत का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ये उसी दौर की कहानी है, जब भारत दुनिया में, जैसाकि बताया जाता है, कथित तौर पर सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है और कुछ वर्षों के अंदर ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है। ये उपलब्धियां अपनी जगह गर्व की बात हो सकती हैं। लेकिन यह मुद्दा लगातार प्रासंगिक है कि अगर ये सफलताएं आम जन की जिंदगी को अधिक सुरक्षित और संपन्न नहीं बनाती हैं, तो फिर इनका कितना महत्त्व रह जाएगा?