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किसान बनाम कारोबारी!

ये प्रकरण बताता है कि किस कदर कृषि एवं उद्योग क्षेत्र परस्पर विरोधी धरातल पर चले गए हैं। यह विकास की समग्र दृष्टि के अभाव का परिणाम है। स्वस्थ अर्थव्यवस्था में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के बीच साझा हित होते हैं।

अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते की बातचीत में मुख्य अड़चन डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की कृषि एवं डेयरी संबंधी क्षेत्र को अमेरिकी निर्यात के लिए पूरी तरह खोलने की मांग से आई। नरेंद्र मोदी सरकार का दावा है कि उसने किसानों के हित पर समझौता करने से इनकार कर दिया। मगर उसका खामियाजा कारखाना क्षेत्र को भुगतना पड़ रहा है। अमेरिका ने भारत पर भारी आयात शुल्क थोप दिया, जिससे निर्यात निर्भर उद्योगों के सामने बड़ी मुश्किल आ पड़ी है। मतलब यह कि नव-उदारवादी दौर में भारत ने विकास का ऐसा मॉडल अपनाया, जिसमें अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में अंतर्विरोध बढ़ता चला गया है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल कपड़ा एवं वस्त्र उद्योग है।

अमेरिकी बाजार में आई रुकावट के दुष्प्रभाव से राहत पाने के लिए कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन टेक्सटाइल इंडस्ट्री ने सरकार से कपास पर आयात शुल्क को हटाने की मांग की। सरकार ने तुरंत ये मांग मान ली। 11 फीसदी का आयात शुल्क समाप्त कर दिया गया। 19 अगस्त से लागू इस फैसले का तुरंत असर हुआ। दो दिन के भीतर ही कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) ने कपास के दाम में 1,100 रुपये प्रति कैंडी की कटौती कर दी। इस कारण वस्त्र उद्योग की लागत काफी कम हो जाएगी और वह अपने उत्पादों को अपेक्षाकृत सस्ती दर पर निर्यात कर सकेगा।

मगर इस सरकारी फैसले से किसान नाराज हो गए हैं। उनके संगठन संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने इस कदम को “कपास किसानों के लिए मौत की गारंटी” बताया है। उसने पूछा है कि किसानों को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बताने का प्रधानमंत्री का दावा अब कहां गया? एसकेएम ने इस कदम खिलाफ कपास पैदावार वाले क्षेत्रों में आंदोलन छेड़ने का एलान किया है। ये प्रकरण बताता है कि भारत में किस कदर कृषि एवं उद्योग क्षेत्र परस्पर विरोधी धरातल पर चले गए हैं। यह विकास की समग्र दृष्टि के अभाव का सूचक है। स्वस्थ अर्थव्यवस्था में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्र के बीच साझा हित होते हैं। मगर ऐसा तब होता है, जब आर्थिक नियोजन की जरूरत समझी जाती हो। आज तो नियोजन शब्द से ही शासक वर्ग को गुरेज है। नतीजा सामने है।

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