ताजा आंकड़े बताते हैं कि इन कदमों से खाद्य महंगाई पर काबू पाने में आंशिक राहत ही मिली है। जुलाई में भारत में खाद्य महंगाई 11.5 फीसदी रही। यह तीन साल में सबसे उच्चतम स्तर था।
भारत सरकार की आयात-निर्यात नीति में अस्थिरता से किसान या अन्य उत्पादक तबकों के लिए समस्याएं खड़ी होती हैं। हाल में जब प्याज का सवाल आया, तो आखिरकार सरकार को यह वादा करना पड़ा कि सरकार किसानों से प्याज की खरीदारी ऊंची कीमत पर करेगी, ताकि निर्यात रोकने के फैसले से उन्हें नुकसान नहीं होगा। बहरहाल, देखने की बात यह है कि जिस मकसद से खाद्य पदार्थों का निर्यात हाल में रोका गया है, क्या उसमें कामयाबी मिली है? भारत ने पहले गेहूं के निर्यात पर रोक लगाई थी। अब गैर-बासमती और बासमती चावल के निर्यात पर भी कई तरह की रोक लगा दी गई है। लेकिन ताजा आंकड़े बताते हैं कि इन कदमों से खाद्य महंगाई पर काबू पाने में आंशिक राहत ही मिली है। जुलाई में भारत में खाद्य महंगाई 11.5 फीसदी रही। यह तीन साल में सबसे उच्चतम स्तर था। अध्ययनों के मुताबिक पिछले पांच साल में भारत में सामान्य खाने की थाली का दाम 65 फीसदी बढ़ा है, जबकि इस दौरान लोगों की कमाई सिर्फ 37 फीसदी बढ़ी है।
यानी खाने पर लोगों का खर्च काफी ज्यादा बढ़ गया है। इस संकट के कई कारण चर्चा में हैं। इस सिलसिले में अल नीनो के प्रभाव के चलते कमजोर होते मॉनसून, सरकार के भंडार में घटते अनाज, फ्री राशन स्कीम की जरूरतें आदि की चर्चा रही है। यूक्रेन युद्ध से बनी विश्व स्थितियों को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन खाद्य एवं अन्य महंगाई को बढ़ाए रखने में कारोबार पर एकाधिकार रखने वाली कंपनियों और विक्रताओं की क्या भूमिका है, यह सवाल भारत में हो रही चर्चा से गायब है। जबकि पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों ने इस भूमिका को प्रमुख कारण के रूप में सिद्ध कर दिया है। आईएमएफ ने भी यूरोप के संदर्भ में इस तथ्य को अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर विरल आचार्य ने अपने हाल के शोध में भारत के संदर्भ में इस पहलू की भूमिका साबित कर दी है। मगर पक्ष हो या विपक्ष या फिर मेनस्ट्रीम मीडिया- इस बारे में उन्होंने चुप्पी साध रखी है।