जिस समूह का शिखर सम्मेलन शुरू होने से पहले एक साझा घोषणापत्र तैयार करने के लिए ही जद्दोजहद चल रही हो, उससे कितनी आशा रखी जा सकती है, यह खुद जाहिर है। इस जद्दोजहद में कामयाबी मिलने की संभावना भी न्यूनतम ही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 शिखर सम्मेलन से ठीक पहले इस समूह के सदस्य देशों से प्रमुख वैश्विक मुद्दों पर आम सहमति बनाने की अपील कर मेजबान का फर्ज निभाया है। वरना, उनके इस विचार से आज की दुनिया में कम ही लोग सहमत होंगे कि दुनिया आज की खास समस्याओं के समाधान के लिए इस मंच की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। जिस समूह का शिखर सम्मेलन शुरू होने से पहले एक साझा घोषणापत्र तैयार करने के लिए ही जद्दोजहद चल रही हो, उससे कितनी आशा रखी जा सकती है, यह खुद जाहिर है। इस जद्दोजहद में कामयाबी मिलने की संभावना भी न्यूनतम ही है। पश्चिमी देश अड़े हुए हैं कि घोषणापत्र में यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की निंदा जरूर होनी चाहिए। रूस और चीन इस पर राजी होंगे, यह सोचना भी कठिन है। दूसरी तरफ खबर है कि भारत घोषणापत्र में वसुधैव कुटम्बकम का उल्लेख करना चाहता है, जिस पर चीन सहित कई देशों ने एतराज जताया है। बारीक कूटनीति से इस आपत्ति को दूर करने में सफलता मिल सकती है, लेकिन यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर सहमति बनना असंभव है।
बहरहाल, ये मतभेद तात्कालिक समस्याओं से पैदा हुए हैं। लेकिन जी-20 की मुख्य समस्या इसके अस्तित्व का संदर्भ बदल जाना है। इस समूह को भूमंडलीकरण का मिल-जुल कर प्रबंधन करने के लिए बनाया गया था। अब भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ही उलटी दिशा में चल पड़ी है। इस परिघटना की जड़ में पश्चिमी खेमे और चीन-रूस के नेतृत्व में बन रहे खेमे के बीच खाई बढ़ते जाना है। इसके मद्देनजर जहां पश्चिमी देशों की निगाह में अपने समूह जी-7 का महत्त्व फिर से लौट आया है। दूसरी तरफ ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन जैसे मंचों के विकासशील देश अपने माफिक विश्व ढांचे को खड़ा करने की कोशिश में जुटे हुए हैँ। ऐसे में प्रधानमंत्री की इच्छा के मुताबिक नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में जी-20 जलवायु परिवर्तन, ऋण संकट या विकास के बड़े सवालों पर कोई आम सहमति बना पाएगा, इसकी संभावना कम है। इसीलिए इस सम्मेलन को ऐसा उत्सव समझा जा रहा है, जिसमें सार-तत्व का अभाव है।