नूह और आसपास के इलाकों में जो प्रशासनिक नाकामी सामने आई, क्या उसकी शृंखलाबद्ध जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए? लेकिन आज जिस चीज का सबसे ज्यादा अभाव है, वह उत्तरदायित्व ही है। और इसीलिए हिंसक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पा रही है।
हरियाणा के दंगाग्रस्त नूह इलाके में कार्यरत एक सीआईडी अधिकारी ने एक टीवी चैनल को बताया कि उन्होंने हिंसा की तैयारियों के बारे आगाह करते हुए अपने विभाग को रिपोर्ट भेजी थी। लेकिन उस क्षेत्र के थाना इंचार्ज ने उसी चैनल को बताया कि उन्हें ऊपर से कोई ऐसी चेतावनी नहीं आई। उधर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के नेता कह रहे हैं कि हथियार दोनों तरफ (यानी हिंदू और मुस्लिम समुदायों में) इकट्ठा किए गए थे। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि राज्य पुलिस की सबकी सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकती (हालांकि इस पर विवाद होने के बाद उन्होंने जानी-पहचानी सफाई दी कि उनकी बात को गलत ढंग से समझा गया)। बहरहाल, यह अहम सवाल है कि खुफिया सूचना को संबंधित पुलिस थाने को ना भेजने के लिए कौन जिम्मेदार था? उधर, इस तर्क से सरकार या सत्ता पक्ष का बचाव कैसे हो सकता है कि मुसलमानों ने भी हथियार इकट्ठे किए थे और दोनों तरफ से हिंसा हुई? प्रश्न तो यह है कि दोनों में से कोई पक्ष अगर हिंसा की तैयारी में पहले से जुटा हुआ था, तो राज्य प्रशासन कहां सोया हुआ था?
सीआईडी अधिकारी के बयान की रोशनी में यह सवाल और गंभीर हो जाता है- इसलिए कि तब बात सिर्फ लापरवाही की नहीं रह जाती, बल्कि नीयत का सवाल भी उठ खड़ा होता है। हथियार लेकर शोभा यात्रा निकालने की इजाजत देना और चुनौती के अंदाज में किसी अन्य महजब के धर्म स्थल के सामने से उसे गुजरने की इजाजत देने से जुड़े प्रश्नों की चर्चा हम यहां नहीं कर रहे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश के बरेली में जिस तरह ऐसा होने से रोकने वाले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के साथ जैसा व्यवहार किया गया, उसके मद्देनजर ये सवाल भी पूरी गंभीरता के मौजूद हैं। अतिरिक्त प्रश्न यह है कि नूह और आसपास के इलाकों में जो प्रशासनिक नाकामी सामने आई, क्या उसकी शृंखलाबद्ध जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए? लेकिन आज के दौर में जिस चीज का सबसे ज्यादा अभाव है, वह उत्तरदायित्व ही है। और इसीलिए हिंसक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पा रही है।