भारत ने प्रगति की राह पर कई अनोखी उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक राष्ट्र का हर व्यक्ति अपनी संभावनाओं को प्राप्त करने के लिहाज से पूर्ण सक्षम नहीं हो जाता।
आज भारत अपनी आजादी की 76वीं सालगिरह मना रहा है, तो हर वर्ष की तरह फिर हमारे सामने यह सवाल हमारे सामने दरपेश है कि जिन मकसदों के लिए संघर्ष करते हुए हमारे राष्ट्र ने स्वतंत्रता प्राप्त की थी, उन्हें हासिल करने की दिशा में हम कितना कदम बढ़ा पाए। बेशक गुजरे दशकों में भारत ने विकास और प्रगति की राह पर कई अनोखी उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनसे आज वह दुनिया में एक खास पहचान के साथ खड़ा है। लेकिन यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक उस राष्ट्र का हर व्यक्ति अपनी संभावनाओं को प्राप्त करने के लिहाज से पूर्ण सक्षम नहीं होता। आखिर आज के दौर में स्वतंत्रता को अ-स्वतंत्रताओं (यानी स्वतंत्रता की राह में मौजूद बेड़ियों) से क्रमिक रूप से व्यक्तियों के बाहर निकलने के रूप में ही समझा जाता है। यह निर्विवाद है कि भूख और इस तरह के अन्य अभाव सबसे बड़ी अस्वतंत्रताएं हैं।
भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक व्यक्ति की आसान पहुंच नहीं हो, तो वह संविधान या कानूनों में उल्लिखित स्वतंत्रताओं और अधिकारों का उपभोग करने में कतई सक्षम नहीं हो सकता। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसे अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए ये आजादियां और हक बेमायने बने रहते हैं। तो इस सिलसिले में आज हमारे सामने दो प्रमुख प्रश्न हैः क्या भारत गुजरे 76 वर्षों में सबके लिए इन अभावों को दूर कर पाया है और दूसरा यह कि अगर वह ऐसा नहीं कर पाया है, तो क्या वह इस दिशा में संतोषजनक गति के साथ आगे बढ़ रहा है? स्पष्टतः उपलब्ध तमाम आंकड़े इन दोनों प्रश्नों का निराशाजनक उत्तर प्रस्तुत करते हैं। बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी ने इस दिशा में प्रगति की पहले हासिल हुई रफ्तार को कुंद कर दिया है। इसी वजह से यह शिकायत गहराती चली गई है कि एक औपचारिक लोकतंत्र रहते हुए भी भारत असल में नव-कुलीनतंत्र में तब्दील होता जा रहा है। इस स्वतंत्रता दिवस पर अगर हम इस समस्या का समाधान सोच पाए, तो बेशक यह हमारे लिए गर्व का दिन साबित हो सकेगा।