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गुलाबी तस्वीर का सच

Unemployment povertyImage Source: ANI

Unemployment poverty: आमदनी वाले आबादी के सर्वोच्च हिस्से के पास धन के संग्रहण और दूसरी ओर सबसे गरीब दस फीसदी आबादी के जारी संघर्ष का संदेश है कि नई नीतियों की जरूरत है। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सामाजिक सुरक्षा के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता है।

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पिछले हफ्ते जारी दो सरकारी रिपोर्टों में देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर बुनी गई। भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में रोजगार की स्थिति बेहतर होने का दावा किया गया।

स्पष्टतः ये दावा रोजगार की नई गढ़ी गई परिभाषा पर आधारित है, जिसमें घरेलू कारोबार में सहायक परिवार के सदस्यों को भी रोजगार-शुदा समझा जाता है।

रोजगार की गुणवत्ता क्या है, ये सवाल सरकारी विमर्श से पहले ही गायब हो चुका है। दूसरी रिपोर्ट स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से आई, जिसमें चरम गरीबी पांच प्रतिशत से भी नीचे आ जाने का दावा किया गया।

इसमें उपभोग संबंधी सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह भी कहा गया कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच विषमता घट रही है।

रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों के विपरीत

ये सारे निष्कर्ष स्वतंत्र संस्थाओं की अध्ययन रिपोर्टों के बिल्कुल उलट हैं। बहरहाल, अब एक ऐसी रिपोर्ट आई है, जो ऐसी संस्था के आय संबंधी सर्वेक्षणों के आधार पर बनी है, जो सरकारी फंडिंग पर निर्भर है।

ये संस्था नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च (एनसीएईआर) है। रिपोर्ट पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडिया’ज कंज्यूमर इकॉनमी (प्राइस) ने तैयार की है।

इसका निष्कर्ष है कि 2023 में भारत में आर्थिक गैर-बराबरी की खाई 1950 के दशक से भी ज्यादा चौड़ी हो चुकी थी।

रिपोर्ट में आर्थिक विषमता मापने के लिए दुनिया भर में मान्य पैमाने ज़िनी को-इफिशिएंट का उल्लेख किया गया है। इसके मुताबिक भारत का ज़िनी को-इफिशिएंट 1955 में 0.371 था, जो 2023 में 0.410 पर पहुंच गया।

इस पैमाने में शून्य का अर्थ पूर्ण समानता और एक का अर्थ पूर्ण विषमता होता है।

प्राइस की रिपोर्ट में कहा गया है- ‘एक तरफ आमदनी वाले आबादी के सर्वोच्च हिस्से के पास धन के संग्रहण और दूसरी तरफ सबसे गरीब दस फीसदी आबादी के जारी संघर्ष का संदेश है कि (भारत को) आर्थिक समावेशन की दीर्घकालिक नीतियों की जरूरत है।’

रिपोर्ट में शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सामाजिक सुरक्षा के मजबूत तंत्र आदि की जरूरत बताई गई है। इन्हें हासिल करने के लिए प्रगतिशील कर व्यवस्था अपनाने का सुझाव दिया गया है।

स्पष्टतः ये रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों के विपरीत है। मगर मौजूद सरकार शायद ही इस पर ध्यान देगी!

By NI Editorial

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