पचपन साल पहले केन-बेतवा परियोजना की परिकल्पना की गई थी। मगर आज भी बुंदेलखंड के लोग पानी किल्लत झेल रहे हैं। अभी कई और वर्ष उन्हें इंतजार करना होगा। क्या इतनी लेटलतीफी किसी ऐसे देश में हो सकती है, जो विकसित हुआ हो?
केन-बेतवा परियोजना इसकी मिसाल है कि विकास के पैमानों पर भारत क्यों अपनी संभावनाओं को हासिल नहीं कर पाया। ध्यान दीजिएः परियोजना की परिकल्पना सबसे 1970 में की गई, जब मशहूर इंजीनियर एवं तत्कालीन सिंचाई मंत्री डॉ. केएल राव ने पानी की किल्लत वाले इलाकों में पानी पहुंचाने के मकसद से इन दोनों नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव तैयार किया। सिंचाई मंत्रालय को इसकी योजना तैयार करने में दस साल लग गए। 1980 में तैयार योजना के प्रारूप पर संभाव्यता अध्ययन 1995 में शुरू हुआ।
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1999 में संबंधित राज्यों उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बीच सहमति बनाने के लिए समिति बनी। 2008 में जाकर संबंधित योजना केंद्र ने बनाई। 2010 में परियोजना के प्रथम चरण की संभाव्यता अध्ययन रिपोर्ट तैयार हुई। 2014 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने परियोजना को मंजूरी दी। 2021 में यूपी और मप्र ने केंद्र को अपनी सहमति दी। 2023 में इसे वन मंत्रालय की मंजूरी मिली। और 2024 के आखिर में जाकर इस पर अमल की शुरुआत की गई है। फिलहाल, बताया गया है कि इस पर 44,605 करोड़ रुपये खर्च होंगे। पुराने अनुभवों के आधार पर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि काम पूरा होते-होते ये खर्च काफी बढ़ चुका होगा। इस बीच बुंदेलखंड के लोग पानी किल्लत झेलते रहे हैं तथा अभी कई और वर्षों तक उन्हें इसके लाभ का इंतजार करना होगा।
क्या इतनी लेटलतीफी का कल्पना किसी ऐसे देश में की जा सकती है, जो विकसित हुआ हो या वास्तविक विकास की मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो? आज फैशन भारत और चीन की विकास यात्राओं के बीच तुलना करने का है। ये अक्सर पूछा जाता है कि हम क्यों पीछे रह गए? इसका एक नायाब जवाब केन-बेतवा परियोजना है। बहरहाल, अब इस पर काम शुरू हुआ है, तो इसे फुर्ती से और समयबद्ध ढंग से पूरा किया जाना चाहिए। बीच में पर्यावरण संबंधी कोई मुद्दा हो, जैसाकि कांग्रेस की तरफ उठाया गया है, तो उसे आधुनिक वैज्ञानिक विधियों से हल किया जाना चाहिए। लेकिन पर्यावरण की अभिजात्यवादी धारणों से बंध कर बुंदेलखंड के लोगों को प्यासा रखना एक किस्म का नैतिक अपराध होगा।