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जो सोचना मुश्किल था

मणिपुर में फिर पुष्टि हुई है कि वहां संवैधानिक व्यवस्था भंग हो चुकी है। अगर संवैधानिक पदों पर बैठे सभी लोग संविधान की भावना और प्रावधानों के मुताबिक नहीं, बल्कि अपने स्वविवेक से चलने लगेंगे, तो संवैधानिक व्यवस्था का तहस-नहस हो जाना तय है।

देश में संवैधानिक प्रावधान किस तरह अप्रसांगिक होते जा रहे हैं, इसकी ताजा मिसाल मणिपुर में देखने को मिली है। संसद या विधानसभा का सत्र बुलाने के मंत्रिमंडल के अनुरोध की राष्ट्रपति या राज्यपाल अनदेखी कर दें, ऐसी कोई व्यवस्था भारतीय संविधान में नहीं है। अगर कोई भ्रम था भी, तो उसे सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 2016 में स्पष्ट कर दिया, उसने व्यवस्था दी कि ऐसे अनुरोध को मानने के लिए राज्यपाल बाध्य हैं। लेकिन मणिपुर की राज्यपाल अनसुइया उइके ने इस प्रावधान का खुला उल्लंघन कर दिया है। मणिपुर की सरकार ने पहले 27 जुलाई और फिर चार अगस्त को राज्यपाल को 21 अगस्त को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने का परामर्श भेजा। यह तारीख सोमवार को निकल गई, जबकि सत्र नहीं हुआ। स्पष्टतः राज्यपाल ने या तो अपने विवेक से या फिर केंद्र के निर्देश पर सत्र ना बुलाने का फैसला किया। मगर मुद्दा यह है कि ऐसा करने का कोई अधिकार उनके पास नहीं है। अगर संवैधानिक पदों पर बैठे सभी लोग संविधान की भावना और प्रावधानों के मुताबिक नहीं, बल्कि अपने स्वविवेक से चलने लगेंगे, तो संवैधानिक व्यवस्था का तहस-नहस हो जाना तय है। 

अब देखना है कि अगले दो सितंबर तक सत्र बुलाने की एक अन्य संवैधानिक अनिवार्यता का पालन किया जाता है या नहीं। विधानसबा का पिछला सत्र मार्च में स्थगित हुआ था। संविधान के मुताबिक संसद या विधानसभाओं का साल में कम से कम दो सत्र होना अनिवार्य है, और दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतर नहीं हो सकता। अगर दो सितंबर तक भी विधानसभा की बैठक नहीं हुई, तो इससे संविधान के अनुच्छेद 174 में वर्णित इस प्रावधान का खुला उल्लंघन होगा। वैसे ताजा घटना ने भी इस बात की पुष्टि कर दी है कि मणिपुर में संवैधानिक व्यवस्था भंग हो चुकी है। ऐसे में राष्ट्रपति शासन लागू करना ही एकमात्र विकल्प होता है। यह भी रहस्यमय ही है कि इतने खराब हालात के बावजूद केंद्र ऐसा कदम उठाने से क्यों हिचक रहा है? क्या ऐसे में राज्य की हालत के लिए सीधे केंद्र को जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए?

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