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राहुल गांधी का मरहम

राहुल गांधी के प्रति मणिपुर के लोगों की जो भावना छलकी, वह संकेत है कि विभाजनकारी राजनीति के तमाम विध्वंस के बावजूद राष्ट्रीय मुख्यधारा से उनका गहरा लगाव बना हुआ है। राहुल गांधी ने उनकी आहत भावनाओं पर मरहम लगा कर इस लगाव को मजबूत बनाया है।

राहुल गांधी के मणिपुर दौरे से यह बात जाहिर हुई कि लगभग दो महीनों से हिंसा ग्रस्त इस राज्य के लोग किस हताशा और बेचैनी में हैं। उनकी पीड़ा कोई सुने और उनके दर्द को समझे, इसके लिए उनकी बढ़ती व्यग्रता के बीच किसी राष्ट्रीय नेता वहां पहुंचना एक बेहद प्रभावशाली घटना बन गई। राहुल गांधी के प्रति उनकी जो भावना छलकी, वह इस बात का संकेत है कि विभाजनकारी राजनीति के तमाम विध्वंस के बावजूद भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा से उनका गहरा लगाव बना हुआ है। राहुल गांधी ने उनकी आहत भावनाओं पर मरहम लगा कर इस लगाव को मजबूत बनाया है। यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ‘मोहब्बत की दुकान’ जितनी प्रासंगिक मणिपुर में दिखी, उतना प्रभावशाली वह पहले कहीं नहीं दिखी थी। राजनीति में मुद्दे और विचार महत्त्वपूर्ण होते हैँ। लेकिन उसमें भावनाओं की भी अहमियत होती है। राजनेताओं से यह अपेक्षित होता है कि लोगों की भावनाओं से ना जुड़े रहें, बल्कि जब लोग भावनात्मक अशांति से गुजर रहे हों, तो उनसे अपने लगाव का इजहार कर उनके जख्म पर मरहम भी लगाएं।

गुजरे दशकों में भारत में ऐसी राजनीति दुर्लभ होती गई है। बल्कि हाल में तो राजनीति का मतलब विभिन्न सांप्रदायिक और जातीय समुदायों की भावनाओं को भड़का कर लाभ उठाना बन गया है। इसके दुष्परिणाम अब खुलकर सामने आने लगे हैं। ऐसी सियासत का नतीजा यह हुआ है कि भारतीय समाज सांप्रदायिक/जातीय भावनाओं के उबाल की ज्वालामुखी पर पहुंचता जा रहा है। इसके बीच राहुल गांधी ने ‘मोहब्बत की दुकान’ का जो प्रयोग शुरू किया है, वह लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है। यह आलोचना अपनी जगह सही हो सकती है कि राहुल गांधी आर्थिक नीतियों या राजनीतिक रणनीति के मोर्चे पर कोई कारगर विकल्प अब तक पेश नहीं कर पाए हैँ। इसके बावजूद यह जरूर कहा जा सकता है कि राजनीति को चुनावी जोड़तोड़ के दायरे में सीमित मानने के चलन को तोड़ने की एक शुरुआत उन्होंने जरूर की है। मणिपुर में उन्होंने इस बात की एक झलक दिखाई। ऐसी व्यापक राजनीति आज की बड़ी जरूरत है, इसे उन्होंने दिखाया है।

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