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पुराना कायदा याद आया

सिसोदिया को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बेल और जेल के बारे पुराने स्थापित सिद्धांत का हवाला दिया है। अपेक्षित होगा कि अब इस सिद्धांत को अन्य कई मामलों में वर्षों से जेल में पड़े लोगों के संदर्भ में भी लागू किया जाए।

स्वागतयोग्य है कि सुप्रीम कोर्ट को वो पुराना कायदा फिर याद आया है, जिसे अतीत में खुद उसने ही कायम किया था। बेल नियम और जेल अपवाद- यह आधुनिक न्याय व्यवस्था का मान्य सिद्धांत है। समाज कानून के शासन के सिद्धांत से चल रहा हो, तो सजायाफ्ता हुए बिना किसी व्यक्ति अनिश्चित काल तक कारागार में रख कर उसे निजी स्वतंत्रता के बुनियादी- संवैधानिक- अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। किसी को सिर्फ इस संभावना के आधार पर जेल में नहीं रखा जा सकता कि भविष्य में चल रहे मुकदमे में उसे सजा हो सकती है। दरअसल, आधुनिक न्याय व्यवस्था तो इस उसूल पर आधारित है कि भले कई दोषी छूट जाएं, लेकिन किसी एक निर्दोष को दंड नहीं मिलना चाहिए। मगर गुजरे कुछ वर्षों में विभिन्न कानूनों में इन उसूलों का उल्लंघन करने वाली धाराएं शामिल की गईं और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय उन्हें वैध ठहराता गया।

उनमें ही एक मनी लॉन्ड्रिंग निरोधक कानून (पीएमएलए) की धारा 45 है, जिसमें जमानत मिलने की शर्तें इतनी ऊंची कर दी गई हैं कि जमानत मिलना असंभव-सा हो गया है। यही धारा दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की जमानत में रुकावट बनी हुई थी। बिना मुकदमे की सुनवाई शुरू हुए उन्हें 17 महीनों तक जेल में रहना पड़ा। अब उन्हीं को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बेल और जेल के बारे में न्यायिक आदेशों में अनेक बार दोहराए गए उपरोक्त सिद्धांत का हवाला दिया है। अपेक्षित होगा कि अब इसी सिद्धांत को भीमा कोरेगांव, 2020 के दिल्ली दंगों और अन्य कई मामलों में वर्षों से जेल में रखे गए अनगिनत लोगों के संदर्भ में भी लागू किया जाए। एक पैमाना यह बनाया जा सकता है कि वास्तविक सुनवाई शुरू हुई है या नहीं। मुकदमे की कार्यवाही शुरू करने के मामले में सरकारों का रिकॉर्ड बेहद खराब है। इस कारण अभियुक्त अपनी सफाई पेश करने के अवसर से वंचित बने हैं। इन्हीं हालात की वजह से, जैसाकि कहा जाता है, प्रक्रिया ही दंड बन गई है, जिससे एक संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में भारत की नकारात्मक छवि उभरी है।

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