मौजूदा हालात में सरकारी नीतियों से प्रभावित किसी तबके लिए संघर्ष करना या अपनी मांगें मनवाना आसान नहीं रह गया है। इसलिए चार श्रम संहिताओं के खिलाफ ट्रेड यूनियनों का संघर्ष भी बहुत प्रभाव छोड़ पाएगा, इसकी संभावना कम है।
संसद से पारित होने के बाद चार श्रम संहिताओं को लागू करने में सरकार को लगभग छह साल लगे, तो उसका यही संकेत है कि इनको लेकर संबंधित पक्षों के बीच कैसे टकराव की स्थिति रही है। सत्ता पक्ष की हालिया चुनावी सफलताओं के बाद संभवतः केंद्र ने महसूस किया है कि इन संहिताओं को लागू करने का यह अनुकूल मौका है। केंद्र का दावा है कि इन संहिताओं के जरिए पुराने पड़ गए श्रम कानूनों को आधुनिक और मौजूदा “वैश्विक प्रतिमानों” के अनुरूप बनाया गया है। दावा तो यह भी है कि इनमें श्रमिकों के कल्याण के नए और प्रभावी उपाय शामिल किए गए हैँ।
मगर दस ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच की प्रतिक्रिया पर गौर करें, तो यह साफ होता है कि श्रम क्षेत्र के अनेक प्रमुख हितधारक ऐसे दावों से सहमत नहीं हैं। उनकी दलील है कि इन संहिताओं का मकसद मजदूरों एवं कर्मचारियों की सामूहिक सौदेबाजी की वैधानिक व्यवस्था को कमजोर करना है। इन संहिताओं के तहत ट्रेड यूनियन बनाना, उनकी सामूहिक शक्ति के जरिए अपनी मांगों को रखना या हड़ताल पर जाना बेहद कठिन हो जाएगा। यानी श्रमिक वर्ग पूरी तरह प्रबंधन और सरकार की सदाशयता पर निर्भर हो जाएगा। संयुक्त मंच ने याद दिलाया है कि इन संहिताओं के खिलाफ गुजरे वर्षों में उसने कई आंदोलन किए।
मंच ने इसी गुरुवार को संयुक्त किसान मोर्चा के साथ मिल कर देश भर में विरोध जताने का एलान किया है। साथ ही विरोध प्रदर्शन के कई अन्य कार्यक्रम भी उसने घोषित किए हैँ। यह निर्विवाद है कि मौजूदा हालात में सरकारी नीतियों से प्रभावित किसी तबके लिए संघर्ष करना या अपनी मांगें मनवाना आसान नहीं रह गया है। इसलिए ट्रेड यूनियनों का संघर्ष भी बहुत प्रभाव छोड़ पाएगा, इसकी संभावना कम है। फिर भी बिना उन्हें भरोसे में लिए श्रम संहिताओं को लागू कर सरकार ने टकराव का एक नया मोर्चा खोल दिया है। बेहतर होता, भारतीय श्रम सम्मेलन (आईएलसी) की बैठक बुलाकर अधिकतम सहमति बनाने की कोशिश की जाती। मगर केंद्र ने इसकी जरूरत नहीं समझी। इससे श्रम एवं पूंजी के बीच नया तनाव पैदा हो सकता है।
