नूंह में प्रशासन ने शांति बनाए रखी। अगर बड़े संदर्भ में देखें, तो इस घटनाक्रम में एक बड़ा संदेश छिपा हुआ है। इससे यह साफ हुआ है कि अगर प्रशासन मुस्तैद हो, तो अशांति और दंगों को रोका जा सकता है।
सावन की आखिरी सोमवारी को हरियाणा के नूंह में शांति बनी रही। प्रशासन की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इसके लिए वहां पुख्ता इंतजाम किए। उन्होंने यह सही फैसला किया कि इस अवसर पर परंपरा के मुताबिक लोग स्थानीय स्तर पर जलाभिषेक करें, लेकिन बाहरी लोगों को वहां आकर जुलूस निकालने और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। प्रशासन ने इस निर्णय पर प्रभावशाली अमल भी किया। इस तरह महीने भर पहले ऐसे ही जुलूस के कारण जैसा दंगा भड़का था, उसकी आशंकाओं को निर्मूल कर दिया गया। अगर बड़े संदर्भ में देखें, तो इस घटनाक्रम में एक बड़ा संदेश छिपा हुआ है। इससे यह साफ हुआ है कि अगर प्रशासन मुस्तैद हो, तो अशांति और दंगों को रोका जा सकता है। इस बात की पुष्टि आयरलैंड से लेकर अशांति ग्रस्त रहे कई देशों और भारत के सांप्रदायिक दंगों के बारे में हुए अकादमिक अध्ययनों से भी हुई है कि प्रशासन के सचमुच ना चाहने पर पहले तो दंगे भड़कते ही नहीं हैं, लेकिन असामान्य स्थितियों में ये भड़क भी गए, तो कुछ घंटों के अंदर उन पर काबू पा लिया जाता है।
लोकतांत्रिक देशों में हुए अध्ययन इस नतीजे पर पहुंचे कि उन दलों के शासनकाल में लंबा खिंचने वाले दंगे लगभग नहीं होते हैं, जिनका सियासी स्वार्थ अल्पसंख्यक समुदायों के वोटों से जुड़ा होता है। यह आम तजुर्बा है कि दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं समुदायों को होता है। जबकि आतंकवाद में जान-माल की सबसे ज्यादा हानि बहुसंख्यक समुदाय को उठानी पड़ती है। एक बिंदु पर जाकर ये दोनों परिघटनाओं में संबंध भी कायम हो जाता है। नतीजतन दंगों का होना या उनका जारी रहना अंततः किसी समुदाय के हित में नहीं होता। इसलिए यह अपेक्षा हर सरकार और प्रशासन से रहती है कि वह दंगों और आतंकवाद के प्रति समान सख्त रुख अपनाए। आशा है कि नूंह के अनुभव से देश भर की सरकारें सबक लेंगी। यह सबको याद रखना चाहिए कि हिंसक घटनाओं से ना सिर्फ देश की बदनामी होती है, बल्कि ऐसी घटनाएं लंबी अवधि में आर्थिक खुशहाली की राह रुकावट भी बनती हैं।