इमरान खान को ऊपरी अदालतों से राहत मिलेगी या नहीं, यह अभी तय नहीं है। लेकिन यह तय है कि अगर ऐस्टैबलिशमेंट ने उन्हें सियासत से हटाने को सोच लिया है, तो यह होकर रहेगा।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की कहानी जुगनू की चमक जैसी ही है। उसका 75 साल का इतिहास रोशनी की थोड़ी से आस जगाने के बाद फिर लंबे अंधकार के दौर की तरह रहा है। अब यह कहा जा सकता है कि जनरल परवेज मुशर्रफ के पतन के बाद टिमटिमाती रोशनी का जो एक दौर आया था, वह गुजर चुका है और देश पर फिर से पूरी तरह एस्टैबलिशमेंट (सेना+खुफिया नेतृत्व) का शिकंजा कस गया है। वैसे जब कभी पाकिस्तान में असैनिक सरकार भी रही, तो वह ऐस्टैबलिशमेंट की मर्जी से ही चलती रही है। उसकी सीमित हूक्म-उदूली की जुर्रत सिर्फ दो लोकप्रिय नेताओं ने दिखाई। 1970 के दशक में जुल्फिकार अली भुट्टो ने ऐसी कोशिश की, तो उन्हें उसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। उन्हें जिस तरह फांसी दी गई थी, आधुनिक इतिहासकारों ने उसे न्यायिक हत्या के नाम से पुकारा है। अब उसी तरीके से पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को फिलहाल सियासी मैदान से हटाने की कोशिश की गई है।
यह निर्विवाद संकेत है कि अगर इमरान खान सियासी मैदान में रहे, उनकी पार्टी को चुनाव लड़ने दिया गया और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव हुए, तो आज की कमजोर अवस्था में भी इमरान खान की पार्टी को हराना सत्ताधारी गठबंधन- पाकिस्तान डेमोक्रेटिक एलायंस के लिए मुमकिन नहीं होगा। तो तोशाखाना मामले में खान को तीन साल कैद के साथ-साथ पांच साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराने का न्यायिक फैसला आया है। फैसले के बाद तुरत-फुरत इमरान को जेल में भी डाल दिया गया। लोगों ने इस बात को कौतूहल के साथ सुना है कि इमरान खान ने प्रधानमंत्री रहते हुए मिले तोहफों को सरकारी विभाग तोशाखाना में जमा नहीं करवाया, जो कानून भ्रष्टाचार है। यह बात लोगों को पहली बार मालूम हुई है कि पाकिस्तान में बाकी राजनेता इस हद तक ईमानदार हैं कि एक ऐसे मामले में एक पूर्व प्रधानमंत्री को जेल भेजकर उसका राजनीतिक करियर खत्म कराया जा सकता है! इमरान को ऊपरी अदालतों से राहत मिलेगी या नहीं, यह अभी तय नहीं है। लेकिन ये तय है कि अगर ऐस्टैबलिशमेंट ने उन्हें सियासत से हटाने को सोच लिया है, तो यह होकर रहेगा।