सवाल पूछने पर सवालों से ही जवाबी हमला बोलने की वर्तमान सत्ता पक्ष की रणनीति अब नई नहीं रह गई है। लेकिन इन तौर-तरीकों ने भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य दोनों को अनिश्चय में डाल दिया है।
संसद के विशेष सत्र को लेकर जारी रहस्यमय स्थिति के बीच विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया ने सरकार से तुरंत बताने को कहा कि इस सत्र का एजेंडा क्या है। कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रस्तावित सत्र में चर्चा के लिए कुछ ‘रचनात्मक सुझाव’ दिए। लोकतांत्रिक परंपरा और मर्यादा के अनुरूप अपेक्षित तो यह होता है कि ऐसे पत्रों का उत्तर सीधे प्रधानमंत्री की तरफ से आए। लेकिन नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ऐसी परिपाटियों के निर्वाह की अपेक्षा हम नहीं रखते। फिर भी एक सामान्य से पत्र पर केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी और टीवी चैनलों पर भाजपा प्रवक्ताओं की दिखी प्रतिक्रिया को न सिर्फ अवांछित, बल्कि एक हद तक आपत्तिजनक भी कहा जाएगा। सत्ता पक्ष ने उलटे सोनिया गांधी के खिलाफ आरोपों की झड़ी लगा दी। उन पर ‘लोकतंत्र के मंदिर संसद को सियासी रंग’ देने का इल्जाम लगाया गया है। बहरहाल, सरकार चाहे सोनिया गांधी के सुझावों को तव्वजो दे या नहीं, यह उसका विशेषाधिकार है, लेकिन संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है, तो उसका एजेंडा सारा देश जानना चाहता है।
संसद के सत्र को लेकर ऐसी गोपनीयता अभूतपूर्व है। फिर जिन लोगों को सत्र में भाग लेना है, उनमें जनता से निर्वाचित विपक्षी सांसद भी हैं। किसी एक साधारण बैठक के पहले भी भागीदार यह जानना चाहते हैं कि मीटिंग किसलिए बुलाई गई है। ऐसे में सांसदों का एजेंडा पूछना पूरी तरह वैध एवं विवेकपूर्ण है। लेकिन सरकार संभवतः विपक्ष को संसदीय प्रक्रिया में वैध हितधारक (स्टेकहोल्डर) नहीं मानती। उसे बदनाम और लांछित करके अपने समर्थक तबकों की निगाह में गिराने की कोशिश अब खासी जानी-पहचानी हो चुकी है। सवाल पूछने पर सवालों से ही जवाबी हमला बोलने की उसकी रणनीति भी नई नहीं है। लेकिन इन तौर-तरीकों ने भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य दोनों को अनिश्चय में डाल दिया है। इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि पारदर्शिता लोकतंत्र का बुनियादी तकाजा है, जबकि गुपचुप फैसले लेना और उन्हें लागू कर देना सिरे से लोकतांत्रिक भावना और व्यवस्था पर प्रहार माना जाता है। यही कसौटी लोकतंत्र को राजतंत्र से अलग करती है।