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अगर मकसद पूरा हो

सर्वोच्च अदालत

जज भी नियमों और पारदर्शिता संबंधी अपेक्षाओं से बंधे रहें, यह जरूरी है। लेकिन इसके लिए ऐसे उपायों पर विचार किया जाना चाहिए, जिनसे यह मकसद सचमुच पूरा होता हो। संपत्ति की सूचना सार्वजनिक करना इस दिशा में सिर्फ एक उपाय है।

सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के बारे में पारदर्शिता के जितने उपाय हों, वे अपेक्षित हैं। लेकिन साथ-साथ यह भी विचारणीय है कि जिन तरह के उपायों की बात होती है, उनका अन्य मामलों में क्या अनुभव रहा है। मसलन, एक समय यह मांग पुरजोर ढंग से उठती थी कि नेताओं की संपत्ति और उनके आपराधिक रिकॉर्ड का ब्योरा जनता के सामने आना चाहिए। निर्वाचन आयोग ने अपनी पहल पर चुनाव लड़ने के समय इन दोनों मामलों में हलफनामा दायर करना अनिवार्य कर दिया। उससे अब यह सामने आता रहता है कि किस नेता के पास कितनी संपत्ति है और उसके सार्वजनिक पद पर रहने के दौरान उसमें कितनी बढ़ोतरी हुई। लेकिन क्या इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में सचमुच मदद मिली है? या इस प्रश्न को ऐसे भी पूछा जा सकता है कि क्या इससे वो मकसद पूरा हुआ है, जिसके लिए यह मांग उठाई जाती थी? ये सवाल जजों के बारे में भी बनें रहेंगे। ताजा संदर्भ यह है कि एक संसदीय समिति ने कहा है कि जजों की संपत्ति की घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए कानून लाया जाना चाहिए।

अदालतों ने 2009 में जजों की संपत्ति की घोषणा का संकल्प लिया था, लेकिन बहुत कम जज इस संकल्प का पालन करते हैं। संसद की कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी समिति ने अपनी 133वीं रिपोर्ट में न्यायपालिका से संबंधित कई मामलों पर अपने विचार सामने रखे हैं। इनमें सुप्रीम कोर्ट और देश के सभी हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति की सूचना सार्वजनिक किये जाने का मामला भी शामिल है। यहां इस बात का जरूर उल्लेख होना चाहिए कि भ्रष्टाचार जारी रहने का एक बड़ा कारण बेनामी संपत्ति और हवाला के जरिए पैसा विदेश भेज कर वहां निवेश की सुविधा देने का चलन भी है। जब भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों इस माध्यम से पैसा बनाने के इल्जाम लगते हैं, तो यह बात जजों के मामले में भी सामने आ सकती है। जज भी नियमों और पारदर्शिता संबंधी अपेक्षाओं से बंधे रहें, यह जरूरी है। लेकिन इसके लिए ऐसे उपायों पर विचार किया जाना चाहिए, जिनसे यह मकसद सचमुच पूरा होता हो।

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