राहुल गांधी समाधान का बिना कोई वैकल्पिक मॉडल पेश किए खुद को विकल्प बताने में कामयाब हो रहे हैं। इस रूप में उन्हें संभवतः विपक्ष के नेता के रूप में मिले विशेषाधिकार का लाभ भी मिल रहा है।
भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर केंद्रीय भूमिका वाले एक नेता के रूप में राहुल गांधी का आगमन हो गया है- ये बात अब कई ऐसे लोग भी कह रहे हैं, जो कांग्रेस नेता के पूरे सियासी जीवन में उनके आलोचक रहे हैं। हाल का ट्रेंड यह है कि संसद में उनके हर हस्तक्षेप के बाद उनके उदय की चर्चा फिर से शुरू हो जाती है। पिछले आम चुनाव के पहले तक यह बात मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर थी, लेकिन अब यह मेनस्ट्रीम मीडिया की चर्चा का विषय भी बन गई है। जिस नेता की “पप्पू” की छवि बनाई गई थी, उसका यह रूपांतरण अनेक विश्लेषकों की निगाह में अध्ययन का विषय है। मगर फिलहाल हकीकत यह है कि राहुल गांधी समाज में तेजी से फैले असंतोष को आवाज दे रहे हैं। इसके लिए वे हिंदू मिथकों से जुड़े मुहावरों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसमें उनका अंदाज जितना आक्रामक हो रहा है, उनके लिए तालियां बजाने वालों की संख्या उतनी ही बढ़ रही है। इसका नज़ारा सोमवार को लोकसभा में बजट पर दिए उनके भाषण के बाद फिर देखने को मिला।
इस दौरान गांधी ने वर्तमान सरकार के तहत आर्थिक नीतियों पर मोनोपॉली घरानों के नियंत्रण, सामाजिक अन्याय, एवं “डीप स्टेट के आतंक” का जिक्र किया और तालियां बटोर ले गए। ध्यान योग्य है कि राहुल गांधी समाधान का बिना कोई वैकल्पिक मॉडल पेश किए खुद को विकल्प बताने में कामयाब हो रहे हैं। इस रूप में उन्हें संभवतः विपक्ष के नेता के रूप में मिले विशेषाधिकार का लाभ भी मिल रहा है- जिसे किसी अपने उत्तरदायित्व के सरकार को जवाबदेहियों के कठघरे में खड़ा करने की सुविधा मिली होती है। संभवतः नरेंद्र मोदी के धूमिल पड़ते सितारों के कारण भी राहुल की आभा अधिक चमकती नजर आने लगी है। कांग्रेस चाहे तो इसे फिलहाल अपने लिए सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में देख सकती है, लेकिन देश को नीतिगत एवं राजकाज संबंधी वैकल्पिक रास्ता देने की चुनौती अब भी उसके सामने उतने ही विशाल रूप में मौजूद है, जितनी तब थी, जब राहुल गांधी को मुख्यधारा चर्चाओं में गंभीरता से नहीं लिया जाता था।