केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपालों से अपेक्षित है कि राज्य में हो रही गतिविधियों से केंद्र को अवगत रखें तथा जरूरत पड़ने पर राज्य सरकार को उचित परामर्श दें। लेकिन वे निर्वाचित सरकारों के कामकाज में व्यवधान डालने लगें, यह कतई अपेक्षित नहीं हैं।
एक महीने के भीतर केरल की सरकार राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के खिलाफ दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। जबकि केरल, तमिलनाडु और पंजाब सरकारों की तरफ अपने-अपने राज्यपालों के खिलाफ दायर मामले की सुनवाई अभी चल ही रही है। केरल की लेफ्ट फ्रंट सरकार की शिकायत है कि राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों पर अपना दस्तखत नहीं कर रहे हैं। ना ही वे विधेयकों को पुनर्विचार के ले विधानसभा को लौटा रहे हैं। ठीक यही शिकायत लेकर पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार भी राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई है। तमिलनाडु में तो डीएमके सरकार और राज्य आरएन रवि के बीच टकराव के कई बिंदु हैं। वैसे यह कहानी सिर्फ इन तीन राज्यों की नहीं है। बल्कि कई ऐसे राज्यों में इसे लगभग इसी तरह दोहराया गया है, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है। इस रूप में देखा जाए, तो एक साफ पैटर्न उभरा है।
इसलिए विपक्षी दलों की इस शिकायत में दम है कि जिन राज्यों में भाजपा मतदाताओं के समर्थन से सत्ता में नहीं आ पाती, वहां केंद्र में स्थित उसकी सरकार राज्यपालों के जरिए आम प्रशासन को दूभर बनाने का काम करती है। इस तरह संघीय व्यवस्था एवं संवैधानिक भावनाओं का उल्लंघन हो रहा है। तीन राज्यों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते जो टिप्पणियां कीं, उसका साफ संकेत है कि इस अवस्था से मानवीय न्यायाधीश भी व्यग्र हैं। कोर्ट ने कहा कि इससे पहले की ऐसे मामले उस तक पहुंचे, राज्यपालों को इन्हें अपने स्तर पर ही निपटा लेना चाहिए। बेशक यह मामला पेचीदा और संवेदनशील है। संविधान के मुताबिक राज्यपाल राज्यों में केंद्र के प्रतिनिधि हैं और उनकी खास गरिमा होती है। केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर उनसे अपेक्षित है कि राज्य में हो रही गतिविधियों से केंद्र को अवगत रखें तथा जरूरत पड़ने पर राज्य सरकार को उचित परामर्श दें। लेकिन वे निर्वाचित सरकारों के कामकाज में व्यवधान डालने लगें, यह कतई अपेक्षित नहीं हैं। यह सबको याद रखना चाहिए कि भारतीय व्यवस्था में राज्य एक संवैधानिक इकाई हैं- वे केंद्र के मातहत नहीं हैं।