जुर्म साबित करने के लिए किसी ठोस सबूत की आवश्यकता होगी, या पुलिस के पास “सूत्रों से मौजूद सूचना” पर्याप्त होगी? मुकदमों की सुनवाई समयबद्ध तरीके से हो, तब तो फिर भी ठीक है, लेकिन फिलहाल ऐसे कानूनों की प्रक्रिया ही सज़ा बनी हुई है।
नक्सल या ऐसी किसी गतिविधि के खिलाफ कदम उठाना सरकार की जिम्मेदारी है, जिसमें सशस्त्र तरीके से भारतीय राज्य को चुनौती दी जाती हो। संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर राज्य-व्यवस्था के खिलाफ होने वाली गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसी गतिविधियों पर लगाम की आड़ में समाज में विचार-विमर्श की स्वतंत्रता पर कानून की तलवार लटका देने का भी कोई औचित्य नहीं हो सकता। अतीत में खुद भारतीय सुप्रीम कोर्ट यह व्यवस्था दे चुका है कि जब तक कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष हिंसक या बगावती गतिविधि में शामिल ना हो, उसे आतंकवादी (या नक्सलवादी) नहीं ठहराया जा सकता। यानी कोई विचार रखने या उस पर चर्चा करने और प्रत्यक्ष हिंसक गतिविधि को अंजाम देने के बीच फर्क किया जाना चाहिए। मगर हाल में ‘अर्बन नक्सल’ का जो हौव्वा खड़ा किया गया है, उसमें प्राकृतिक न्याय के इस मूलभूत सिद्धांत की सिरे से उपेक्षा की गई है।
एक सियासी बहस के तौर पर ‘अर्बन नक्सल’ को चर्चा में लाने का मुमकिन है, फिर भी एक औचित्य हो। लेकिन कठोर कानून बना कर इस अपरिभाषित और अस्पष्ट धारणा के आधार पर व्यक्तियों को दंडित करने की सोच आपत्तिजनक है। इसीलिए पिछले हफ्ते पेश महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्युरिटी बिल-2024 को समस्याग्रस्त कदम माना जाएगा। इस विधेयक में उन लोगों के लिए तीन साल कैद और तीन लाख रुपये जुर्माना का प्रावधान है, जो किसी भले किसी गैर-कानूनी संगठन का सदस्य ना हों, लेकिन जो ऐसे किसी संगठन को “सहायता प्रदान” करते हों। प्रस्तावित विधेयक के मुताबिक अगर ऐसे व्यक्ति किसी अवैध घोषित संगठन की तरफ से किसी गतिविधि की योजना बनाने में शामिल रहे हों, तो उन्हें सात साल तक कैद और पांच लाख रुपये तक जुर्माना हो सकेगा। मुद्दा है कि ऐसे व्यक्तियों का जुर्म साबित करने के लिए क्या किसी ठोस सबूत और दस्तावेजों की आवश्यकता होगी, या पुलिस की शक या उसके पास “सूत्रों से मौजूद सूचना” पर्याप्त होगी? ऐसे मुकदमों की सुनवाई अगर समयबद्ध तरीके से हो, तब तो फिर भी ठीक है, लेकिन अनुभव यही है कि ऐसे कानून की प्रक्रिया ही इस देश में फिलहाल सज़ा बनी हुई है।