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विदेशी निवेश क्यों गिरता हुआ?

एफडीआई

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2005 के बाद के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। कई कंपनियों ने नए निवेश की घोषणाएं की थीं, लेकिन असल में उन्होंने पैसा नहीं लगाया। आखिर ऐसा क्यों हुआ है?  Foreign Direct Investment

भारत के सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था होने की कहानी आज दुनिया भर में चर्चित है। शेयर बाजार में तेज उछाल आकर्षण का कारण बना हुआ है। वित्तीय संपत्तियों में निवेश करने वाली संस्थाएं भारत में मुनाफे की मजबूत संभावनाएं देख रही हैं। इसी बीच भारत सरकार के बॉन्ड्स को दुनिया के बड़े बेंचमार्क इंडेक्सों में शामिल किया जा रहा है। यह एक चमकती हुई तस्वीर है। लेकिन उसी समय जमीनी अर्थव्यवस्था (यानी उत्पादन एवं वितरण) से जुड़ी कंपनियां भारत में निवेश करने को लेकर हतोत्साहित होती नजर आ रही हैं।

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भारत में बीते सितंबर में समाप्त हुए वर्ष में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2005 के बाद के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। कई कंपनियों ने नए निवेश की घोषणाएं की थीं, लेकिन असल में उन्होंने पैसा नहीं लगाया। इस सूरत को देखते हुए अमेरिकी इन्वेस्टमेंट बैंक जेपी मॉर्गन के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में लिखा है- ‘दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि एफडीआई की गति धीमी होने की दर जारी है।’ इस ट्रेंड ने भारत में मैनुफैक्चरिंग कारोबार के जरिए रोजगार के अवसर पैदा करने की मंशाओं पर फिलहाल पानी फेर दिया है।

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इस स्थिति की वजह क्या है? विदेशी मीडिया की टिप्पणियों पर गौर करें, तो उनमें अक्सर यह जिक्र होता है कि एक तरफ नरेंद्र मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया और प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव जैसी योजनाएं चलाई हैं, लेकिन साथ ही वह आयात में बाधा डालने, विदेशी कंपनियों से कथित भेदभाव और अचानक नीति परिवर्तन जैसी रास्तों पर भी चली है। इसके अलावा एकाधिकार को बढ़ावा देने वाली उसकी नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की संभावनाएं संकुचित हो गई हैँ।

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एकाधिकार कायम कर चुके घराने नहीं चाहते कि विदेशी पूंजी आकर ऐसे उद्यम खड़े, जिससे उनके लिए प्रतिस्पर्धा खड़ी हो। दरअसल, सरकार और उद्योग जगत में निकट संबंध के कारण नए उद्यमियों को समान धरातल मिलने की गुंजाइश सिकुड़ गई है। जाहिर है, विदेशी निवेशकों को सिर्फ वित्तीय पूंजी में निवेश ही सुरक्षित मालूम पड़ता है। अफसोसनाक बात यह है कि अर्थव्यवस्था की इस दिशा पर देश में आज कोई सार्थक बहस मौजूद नहीं है।

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