“लोकतंत्र के मंदिर” वे स्थान भी हैं, जहां निर्वाचित सरकारों की जवाबदेही तय की जाती है। और इसके लिए जो निर्धारित संसदीय प्रक्रियाएं हैं, उनका पालन हो यह सुनिश्चित करना संवैधानिक पदों पर आसीन शख्सियतों की ही जिम्मेदारी है।
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनकड़ का यह कथन उचित है कि लोकतंत्र का अर्थ सार्वजनिक कल्याण को सुनिश्चित के मकसद से संवाद, चर्चा, विचार-विमर्श और बहस है। उनकी इस बात से भी किसी को असहमति नहीं होगी कि लोकतंत्र का मतलब व्यवधान और शोर-गुल नहीं हो सकता। उन्होंने इस बात पर रोष जताया कि व्यवधान और शोर-गुल को “लोकतंत्र के मंदिरों को कलंकित करने का” का हथियार बना लिया गया है। बहरहाल, जब राज्यसभा के सभापति ने यह बात छेड़ी है, तो इसमें यह भी अवश्य जोड़ा जाएगा कि “लोकतंत्र के मंदिर” वे स्थान भी हैं, जहां निर्वाचित सरकारों की जवाबदेही तय की जाती है। और इसके लिए जो निर्धारित संसदीय प्रक्रियाएं हैं, उनका पालन हो यह सुनिश्चित करना उन जैसे उच्च-पदस्थ शख्सियतों की ही जिम्मेदारी है। क्या इन दोनों बिंदुओं पर आज ये स्थान और वहां के संचालक खरे उतर रहे हैं? अगर मणिपुर जैसे गंभीर संकट पर सदनों में विपक्ष की मांग के मुताबिक चर्चा नहीं हो सकती है और प्रधानमंत्री को बयान देने के लिए पीठासीन अधिकारी निर्देश नहीं दे सकते हैं, तो इससे ही यह जाहिर हो जाता है कि संसद में किस तरह के “संवाद, चर्चा, विचार-विमर्श और बहस” की इजाजत दी जा रही है।
स्थायी ससंदीय समितियों में विधेयकों के परीक्षण की परिपाटी क्यों कमजोर हुई और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) का हाई प्रोफाइल ऑफिस आज क्यों कहीं हाशिये पर पड़ा नजर आता है, इसका उत्तर भी अगर उप-राष्ट्रपति देते, तो जो चर्चा उन्होंने छेडी, वह समग्रता में नजर आती। इसके बिना उनका रोष एक तरह का पक्षपात नजर आता है। जहां तक व्यवधान और हंगामे को हथियार बनाने की बात है, तो इसमें कोई भी पार्टी अपने को साफ-सुथरी नहीं बता सकती। विकीलिक्स वेबसाइट पर भारत संबधी जो दस्तावेज छपे थे, उनमें इस बात का उल्लेख था कि कैसे तत्कालीन विपक्षी पार्टी- भाजपा की बैठकों में अपने प्रदेश इकाइयों के सियासी तकाजों के मुताबिक संसद में व्यवधान डालने की रणनीतियां बनाई गईं। अपेक्षा रहती है कि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति दलगत सोच से ऊपर उठ कर राष्ट्र को निष्पक्षता से संबोधित करेंगे। उप-राष्ट्रपति से भी ऐसी ही अपेक्षा है।