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नाटो सम्मेलन पर नज़र

लिथुआनिया की राजधानी विल्नुस में नाटो के नेता इस पर विचार करेंगे कि यूक्रेन संबंधी रणनीति की धार कैसे तेज की जाए। वैसे नाटो शिखर बैठक के लिए विल्नुस के चयन का प्रतीकात्मक महत्त्व खुद जाहिर है।

आज से शुरू हो रही दो दिन की नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) की शिखर बैठक पर सारी दुनिया की नजर है। आम धारणा बनी है कि यूक्रेन युद्ध में पश्चिमी रणनीति अब तक बेअसर रही है। अब लिथुआनिया की राजधानी विल्नुस में नाटो के नेता इस पर विचार करेंगे कि इस रणनीति की धार कैसे तेज की जाए। शिखर बैठक के लिए विल्नुस के चयन का प्रतीकात्मक महत्त्व खुद जाहिर है। लिथुआनिया पूर्व सोवियत गणराज्य है, जो भौगोलिक रूप से रूस के बहुत करीब है। लिथुआनिया का महत्त्व नाटो के एक दूसरे मकसद से भी है। अमेरिका की मंशा नाटो का एशिया संस्करण तैयार करने की है, ताकि वह अपनी चीन को घेरने की रणनीति को प्रभावी बना सके। लिथुआनिया ने गुजरे दो वर्षों में चीन के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाए रखा है। यहां तक कि उसने ताइवान से वाणिज्य दूत के स्तर पर संबंध भी कायम किए हैँ। अब वहां हो रही नाटो शिखर बैठक में ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड के नेता भी पहुंचेंगे, जबकि ये देश नाटो का सदस्य नहीं हैं। पिछले साल भी नाटो शिखर बैठक में उन्हें आमंत्रित किया गया था।

उसके बाद से नाटो प्लस की चर्चा आगे बढ़ी है। तो कुल कहानी यह है कि इस शिखर बैठक में रूस और चीन दोनों के खिलाफ पश्चिम की रणनीति पर चर्चा होगी। क्या कोई सहमति बन पाएगी? अभी कहना कठिन है। इस शिखर बैठक से ठीक पहले यूक्रेन को क्लास्टर हथियार देने का फैसला कर अमेरिका ने अपने यूरोपीय साथियों को नाराज कर दिया है। उधर खबर है कि नाटो के एशिया में विस्तार की योजना पर फ्रांस ने कड़ा एतराज जता दिया है। जाहिर है, अमेरिका की कोशिश इन मुद्दों पर सहमति बनाने की होगी। संभवतः यूक्रेन के मामले में सहमति बनाने में उसे ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी होगी। लेकिन एशिया में नाटो के विस्तार का मामला पेचीदा है। यूरोपीय देश चीन के प्रति अधिक आक्रामक होने को तैयार नहीं हैं, यह संकेत लगातार मजबूत होता गया है। ऐसे में देखने की बात होगी कि अमेरिका उन पर दबाव बनाने में कितना सफल होता है, जो पहले उसका कारगर तरीका रहा है।

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