अमेरिकी रणनीतिकार अक्सर कहते सुने जाते हैं कि रूस मौसम में बदलाव है, जबकि चीन जलवायु परिवर्तन है। यानी चीन अमेरिकी वर्चस्व के लिए वास्तविक चुनौती पेश कर रहा है। इसलिए चीन के आसपास घेरा डालना उनकी आज प्रमुख रणनीति है।
उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लिथुआनिया में हुए शिखर सम्मेलन में उग्र बातें तो खूब हुईं, लेकिन जिन दो फैसलों पर नजर थी, उन पर आखिर में ठोस फैसले को टाल दिया गया। निगाहें इस पर थीं कि क्या नाटो नेतृत्व जापान में अपना दफ्तर खोलने के एलान पर मुहर लगाता है और क्या यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देने का फैसला होता है? यूक्रेन के लिए फैसला ऐसा हुआ, जिसकी दोनों तरह से व्याख्या हो सकती है। ऊपर से लगता है कि नाटो की सदस्यता को हरी झंडी दे दी गई, लेकिन इसमें सभी सदस्य देशों सहमति और अन्य कसौटियों के पूरा होने की शर्त लगा दी गई। ये शर्तें जल्द भी पूरी हो सकती हैं, लेकिन इनके जरिए इस निर्णय को अनिश्चितकाल तक या फिर हमेशा के लिए टाला जा सकता है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेन्स्की शिखर सम्मेलन से निराश हुए। उधर टोक्यो में यूक्रेन का दफ्तर खोलने का पहले से घोषित इरादा भी टाल दिया गया। स्पष्टतः ऐसा फ्रांस के विरोध के कारण हुआ। जापान में कार्यालय खुलने का मतलब नाटो का एशिया में औपचारिक रूप से विस्तार है।
अमेरिकी रणनीतिकार अक्सर कहते सुने जाते हैं कि रूस मौसम में बदलाव है, जबकि चीन जलवायु परिवर्तन है। यानी चीन अमेरिकी वर्चस्व के लिए वास्तविक चुनौती पेश कर रहा है। इसलिए चीन के आसपास घेरा डालना उनकी आज प्रमुख रणनीति है। इसीलिए उन्होंने नाटो प्लस का प्रस्ताव रखा है। दो बार से नाटो शिखर सम्मेलन में जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को आमंत्रित करने के पीछे भी यही सोच है। इसलिए टोक्यो कार्यालय का मसला एक प्रमुख एजेंडा था। लेकिन संकेत हैं कि इस मुद्दे पर फ्रांस सहित कई यूरोपीय देशों की अलग सोच है, जिनकी चिंता यूरोपीय सुरक्षा तक सीमित है। वैसे अनुभव यह है कि अमेरिका जो चाहता है, वह देर-सबेर अपने सहयोगी देशों से मनवा लेता है। इसलिए यह प्रस्ताव हमेशा के लिए टल गया है, यह मानना भूल होगी। आखिर, गौरतलब यह है कि इस बार भी नाटो घोषणापत्र में चीन आलोचना का एक प्रमुख निशाना बना रहा।