चीनी धन हर रूप में भारतीय हितों के खिलाफ है, तो आखिर देश की बड़ी कंपनियों में पीबीओसी के निवेश को क्यों इजाजत मिली हुई है? भारत सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि चीन को वह भारत का प्रतिद्वंद्वी मानती है या शत्रु।
एक बिजनेस अखबार ने अपने पहले पेज पर प्रमुखता से एक ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित की है, जो सामान्य दिनों में खबर मानी भी नहीं जाती। भूमंडलीकरण के बाद के दौर में विभिन्न देशों की कंपनियों में अन्य देशों के बैंकों या कंपनियों का निवेश एक आम चलन है। इसके बावजूद इस रिपोर्ट ने ध्यान खींचा, तो उसकी वजह मौजूदा संदर्भ है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की किन कंपनियों में अभी भी हजारों करोड़ रुपए का चीन के केंद्रीय बैंक- पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (पीबीओसी) का निवेश है। इन कंपनियों में इन्फोसिस, आईसीसीआईसी बैंक, टीसीएस, बजाज फाइनेंस, एचयूएल, मारुति सुजूकी, एशियन पेन्ट्स आदि शामिल हैं। यह विवरण ठीक उस समय आया है, जब वेबसाइट न्यूजक्लिक पर ऐसा अनुदान लेने के मामले में यूएपीए जैसे सख्त कानून के तहत कार्रवाई की गई है, जिसमें चीनी धन होने का भी संदेह है। यह तथ्य भी जरूर स्पष्ट कर लेना चाहिए कि भारत में मीडिया कारोबार में विदेशी धन आना भी अब प्रतिबंधित नहीं है।
न्यूजक्लिक पर आरोप है कि उसने एक ऐसे श्रीलंकाई मूल के अमेरिकी उद्योगपति की संस्था से चंदा लिया, जिसका कारोबार चीन में भी है और जो वामपंथी विचार वाले मीडिया संस्थानों की कई देशों में मदद करता है। इसलिए यह इल्जाम लगाया गया है कि न्यूजक्लिक चीन के प्रचार-तंत्र का हिस्सा है। ये सारे आरोप अभी न्यायिक कार्यवाही में साबित होने हैं। लेकिन यह मुद्दा अभी हमारे सामने है कि अगर चीनी धन हर रूप में भारत के हितों के खिलाफ है, तो आखिर उन बड़ी कंपनियों में पीबीओसी के निवेश को अब तक क्यों इजाजत मिली हुई है? भारत सरकार को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि चीन को वह भारत का प्रतिद्वंद्वी मानती है या शत्रु। अगर शत्रु मानती है, तो फिर बेशक उसके साथ तमाम तरह के संबंध और संवाद तोड़ लिए जाने चाहिए। लेकिन चीन से रिश्ता के मामले में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग मानदंड अपनाना समस्याग्रस्त है। इससे ना तो चीन की चुनौती का ठीक से मुकाबला किया सकेगा, और ना ही न्यूजक्लिक जैसे मामलों में सरकार की कार्रवाइयों की साख बन सकेगी।