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संगठित आवाज का जोर

क्या एनपीएस वापस लाने के वादे का गणित ठोस है? योजना इसलिए हटाई गई थी, क्योंकि तब समझा गया था कि नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ वह मेल नहीं खाती। आखिर इस अर्थव्यवस्था के कारण समाज के विभिन्न तबकों को सब्सिडी से वंचित किया गया है।

सरकारी कर्मचारी एक संगठित श्रमिक वर्ग का हिस्सा है। भारतीय समाज के आम जीवन स्तर की तुलना में देखें, तो यह तबका काफी बेहतर स्थिति में नजर आएगा। फिर उनके बारे में यह धारणा बनी हुई है कि चुनाव प्रशासन में उनकी खास भूमिका होती है, जो कई बार नतीजों को भी प्रभावित कर देती है। इसलिए उनसे जुड़ी मांग सभी या कुछ राजनीतिक दलों को अपनी चुनावी गणना के लिहाज से महत्त्वपूर्ण मालूम पड़े, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं है। इसलिए इन कर्मचारियों की पुरानी पेंशन योजना को वापस लाने की मांग के पक्ष में विपक्षी दलों का समर्थन बढ़ता चला गया है। कांग्रेस शासित पांच राज्यों सहित कुछ राज्यों में इससे लागू भी कर दिया गया है। रविवार को नई दिल्ली में विभिन्न राज्यो से आए सरकारी कर्मचारियों ने एक बड़ी जन सभा की। तो इस मौके पर कांग्रेस ने वादा दोहरा दिया कि केंद्र में उसकी सरकार बनी, तो वह इस योजना को राष्ट्रीय स्तर पर वापस लाएगी। लेकिन यह प्रश्न है कि क्या वादे का गणित ठोस है? पुरानी पेंशन योजना इसलिए हटाई गई थी, क्योंकि तब समझा गया था कि नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ वह मेल नहीं खाती।

इस अर्थव्यवस्था के कारण समाज के विभिन्न तबकों को सब्सिडी के जरिए मिली हुई अनेक सुविधाएं खत्म की गई हैँ। चूंकि उनमें से ज्यादातर तबके संगठित नहीं हैं, इसलिए उनकी मांग में सरकारी कर्मचारियों जितना जोर नहीं है। जबकि यह बड़ा मुद्दा है कि आखिर सिर्फ सरकारी कर्मचारियों का भविष्य ही राज कोष से क्यों सुरक्षित होना चाहिए? वैसे यह प्रश्न भी प्रासंगिक है कि कुल मतदाताओं में सरकारी कर्मचारियों का प्रतिशत कितना है? सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि अगर उन्हें दी गई किसी सुविधा की वजह से दूसरे तबकों का संभावित कल्याण प्रभावित होता है, तो उसकी प्रतिक्रिया उन तबकों में हो सकती है। इसलिए इस योजना को वापस लाने के वादे के साथ अपनी गणना बैठा रहे दलों को इस मुद्दे पर पुनर्विचार करना चाहिए। या फिर उन्हें यह एलान करना चाहिए कि वे सत्ता में आने पर वे 1991 से पहले वाली अर्थव्यवस्था को ही वापस ले आएंगे!

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