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भटकी हुई प्राथमिकताएं

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भारतीय लोकतंत्र में इस समय मुख्य चुनौती सारे चुनाव एक साथ करा देने की नहीं, बल्कि जो चुनाव होते हैं, उनकी साख कायम रखने की है। ऐसी कई समस्याएं बढ़ती गई हैं, जिनकी वजह से भारतीय चुनावों पर गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रिय योजना ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को औपचारिक मंजूरी दे दी है। इसका अर्थ यह है कि अब सरकार इस योजना को लागू करने की दिशा में काम करेगी। यह कैसे होगा, इसका मोटा खाका रामनाथ कोविंद कमेटी ने बनाया था। उसके मुताबिक लोकसभा चुनाव वाले वर्ष में सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जाएंगे। कोविंद कमेटी ने जब अपनी रिपोर्ट पेश की थी, तब भी इससे ज्यादा स्पष्टता नहीं बनी थी, ना कैबिनेट के हरी झंडी देने के बाद अब इसका पूरा ब्लू प्रिंट उभरा है। इसलिए कहा जाएगा कि अभी तक यह योजना महज एक इरादा ही है। सत्ता पक्ष चाहता, तो महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभाओं के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ करवा कर इस योजना को अधिक विश्वसनीय बना सकती था। लेकिन बाकी बातें तो दूर, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव भी नहीं कर जा सके। वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में इस समय मुख्य चुनौती सारे चुनाव एक साथ करा देने की नहीं, बल्कि जो चुनाव होते हैं, उनकी साख बहाल करने की है।

पहला मुद्दा निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता सुनिश्चित करने का था, जिसमें होनी वाली नियुक्ति प्रक्रिया को पिछले वर्ष सरकार ने मनमाने ढंग से बदल दिया। आम चुनाव के दौरान आयोग का रुख लगातार सवालों के घेरे में रहा। आयोग ने मतदान प्रतिशत बताने में जैसी देर की और बाद में गिरे वोटों की संख्या में जितनी वृद्धि बताई गई, उससे साख का संकट खड़ा हुआ है। चुनाव परिणाम को लेकर जैसे प्रश्न इस बारे उठे, वैसा भारत के चुनावी इतिहास में कभी नहीं हुआ था। इसके अलावा धन का कसता जा रहा शिकंजा चुनावों के प्रातिनिधिक दायरे को लगातार सिकोड़ रहा है। अब इसी पृष्ठभूमि में वन नेशन, वन इलेक्शन योजना सरकार ले आई है। स्वाभाविक है कि सहज गले लगाने के बजाय जनमत का एक बड़ा हिस्सा इसे विरोध भाव के साथ देखेगा। जन विश्वसनीयता और सहमति किसी लोकतंत्र के संचालन की पूर्व शर्त होती हैं। मगर वर्तमान सरकार ऐसे तकाजों की परवाह नहीं करती। फिर उसने वही नजरिया दिखाया है।

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