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भवन और भावना

घूम-फिर कर सवाल यही सामने है कि क्या नए संसद भवन में दोनों पक्ष नई- यानी संसदीय परंपरा की अनिवार्य शर्त बताई जाने वाली- भावना भी दिखाएंगे? उन्होंने ऐसा किया, तभी यह परिवर्तन ऐतिहासिक बन पाएगा।

लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों ने संसद के नए भवन में जाने से पहले पुराने भवन से जुड़ी स्मृतियों को याद किया। नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया, जिन्होंने इस मौके पर अनपेक्षित भावना का प्रदर्शन करते हुए जवाहर लाल नेहरू के ऐतिहासिक ‘स्ट्रोक ऑफ द मिडनाइड’ भाषण को याद किया और साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा भी अन्य पूर्व प्रधानमंत्रियों के बारे में कई सकारात्मक बातें कहीं। विपक्षी नेताओं ने संसद की भावना से जुड़े कई प्रश्न उछाले। घूम-फिर कर सवाल यही सामने आया कि क्या नए भवन में दोनों पक्ष नई (या संसदीय परंपरा की अनिवार्य शर्त बताई जाने वाली) भावना भी दिखाएंगे? अगर दोनों पक्ष सिर्फ यह याद रखें कि सदन में पहुंचे सभी चेहरों को जनता ने निर्वाचित किया है और वे सभी जन प्रतिनिधित्व के लिए वहां आए हैं, तो संसदीय परंपरा को लेकर लगातार गहरी होती गई कई चिंताओं का समाधान निकल सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पमत- यानी विपक्ष भी सरकार की गलतियों को बेनकाब कर और विरोध संगठित कर जनता की तरफ से सौंपी गई जिम्मेदारी का निर्वाह ही करता है, अगर यह बात सत्ता पक्ष आत्मसात कर ले, तो संसद में वे नजारे देखने को नहीं मिलेंगे, जिन्होंने देश के एक बड़े जनमत के मन में व्यग्रता पैदा कर रखी है।

विरोधी का अर्थ दुश्मन समझना और बहुमत को बहुमतवाद में तब्दील कर देना लोकतंत्र की भावना का सिरे उल्लंघन है। संसद जब अपने पुराने भवन से विदा हुई, तब यही प्रवृत्ति वहां हावी थी। अब अगर नए भवन में भी यही जारी रही, तो फिर इमारत की भव्यता और नूतनता से देश में गहराती चली गई विभाजन की भावना पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भवन असल में सिर्फ एक स्थान है, जो भावना की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक परिस्थितियां उपलब्ध कराता है। अब भवन परिवर्तन हो गया है, लेकिन यह अपने-आप में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं है। यह घटना सचमुच ऐतिहासिक बने और इससे जुड़े पात्र इतिहास में अपने लिए खास स्थान बना सकें, इसके लिए जरूरी यह है कि वे उस भावना को भी बदलें, जो इस समय भारतीय लोकतंत्र पर घने बादल की तरह मंडरा रही है।

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