अभी तक लोगों का ध्यान इस पर ही लगा है कि क्या सरकार विशेष सत्र में कोई और बड़ा चौंकाने वाला कदम भी उठाएगी, इसलिए आशंका है कि निर्वाचन आयुक्तों से संबंधी विधेयक बिना पूरी सार्वजनिक जांच-पड़ताल के ही कानून का रूप ले ले।
जैसे केंद्र सरकार ने 18 सितंबर से संसद का विशेष सत्र बुलाने का एलान कर सबको चौंकाया था, वैसे ही उसने बुधवार देर रात सत्र का एजेंडा जारी कर लोगों को अटकलें लगाने की मानसिकता में डाल है। इसलिए कि जो अधिसूचना जारी की गई, उसे इंडिकेटिव (सूचक) एजेंडा कहा गया है। यानी उसमें यह गुंजाइश छोड़ी दी गई है कि सरकार सत्र के पांच दिनों के दौरान कोई और भी चौंकाने वाला विधायी कदम उठा सकती है। वैसे जो एजेंडा बताया गया है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया बदलने संबंधी उस बिल को पारित कराना भी शामिल है, जिसे सरकार ने मानसून सत्र के आखिर में पेश किया था। यह बिल पास होने के बाद निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त करने वाली कमेटी में सरकार का बहुमत हो जाएगा, जबकि भारत के प्रधान न्यायाधीश उस कमेटी से बाहर हो जाएंगे। जैसाकि पहले ही बताया गया था, अगले मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति नवंबर में होनी है, जबकि संसद का अगला सामान्य सत्र दिसंबर में होता।
उस स्थिति में सरकार की सारी गणना नाकाम हो सकती थी। लेकिन यह एक खतरनाक कदम है। इससे निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल और गहराएंगे। सरकार को यह सामान्य सिद्धांत ध्यान में रखना चाहिए कि निष्पक्षता ना सिर्फ बनी रहनी चाहिए, बल्कि ऐसा सबको दिखना भी चाहिए। चुनावों की विश्वसनीयता लोकतंत्र का सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण पहलू है। अगर सरकार ने निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदल दी, तो अगले आयुक्त लगातार संदेह के घेरे में बने रहेंगे, भले वे असल में चुनावों को गलत ढंग से प्रभावित करने का कोई कार्य ना करेँ। निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता के साथ चुनावों की साख जुड़ी होती है। चूंकि अभी तक लोगों का ध्यान इस पर ही लगा है कि क्या सरकार कोई बड़ा चौंकाने वाला कदम भी उठाएगी, इसलिए आशंका है कि निर्वाचन आयुक्तों संबंधी विधेयक बिना पूरी सार्वजनिक जांच-पड़ताल के ही कानून का रूप ले ले। वैसे यह सवाल भी अहम है कि सरकार ने विशेष सत्र के बारे में पूरी मुट्ठी खोल दी है, या अभी उसमें कुछ छिपा रखा है?