अगर पांच किलो मुफ्त अनाज की राहत के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को वैसी दिशा देने की कोशिश हो, जिसमें रोजगार और कारोबार के अवसर पैदा होते हों, तो यह बैंड-एड एक सही उपाय समझा जाएगा। वरना, लोग इसे वोट खरीदने की योजना ही मानेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के दौरान एलान किया कि देश में लगभग 80 करोड़ लोगों को पांच साल और पांच किलो मुफ्त अनाज मिलता रहेगा। इस तरह कोरोना महामारी के आपातकाल में उठाया गया कदम अब मोदी सरकार की स्थायी कल्याण योजना बन गया है। इस ताजा एलान पर दो शुरुआती सवाल उठाए गए हैँ। पहला यह कि क्या प्रचार के दौरान ऐसा नीतिगत एलान चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। दूसरा प्रश्न इसकी आर्थिकी और उसके राजकोष पर प्रभाव को लेकर उठाया गया है। एक तीसरी टिप्पणी थोड़े व्यंग्यात्मक लहजे में की गई है, जिसका तात्पर्य यह है कि प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि देश की दो तिहाई आबादी अगले कम-से-कम पांच साल तक उनकी ‘रेवड़ी’ पर निर्भर रहने के लिए बाध्य बनी रहेगी। बहरहाल, फ़ौरी प्रतिक्रियाएं हैँ। मुद्दा कहीं अधिक गंभीर और दीर्घकालिक है। इसका संबंध देश की विकास नीति से है। अगर बड़ी संख्या में लोग खाने को मोहताज हों, तो उन्हें भोजन उपलब्ध कराया जाए, इस सोच में कोई गड़बड़ी नहीं है। लेकिन यह कोई स्थायी समाधान नहीं हो सकता।
अगर ऐसी राहत के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को वैसी दिशा देने की कोशिश हो, जिसमें रोजगार और कारोबार के अवसर पैदा होते हों, तो फिर यह बैंड-एड एक सही उपाय समझा जाएगा। लेकिन हम ऐसा होते नहीं देख रहे हैं। बल्कि अर्थव्यवस्था में जो गति थी और मानव विकास की जड़ों को मजबूत करने का जो ढांचा पहले मौजूद था, उन सब पर पिछले साढ़े नौ साल में प्रहार होता देखा गया है। उस दिशा की बदलने की कोई सोच अभी सामने आती नहीं दिख रही है। इसीलिए प्रधानमंत्री के एलान को अगर वोट खरीदने का प्रयास बताया गया है, तो इस आलोचना में दम नजर आता है। यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि पांच किलो मुफ्त अनाज से लोगों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल सकता। वह तभी हो सकता है, जब परिवारों की आय बढ़ेगी और वे खान-पान की चीजों के चयन की स्थिति में होंगे। वरना, वो विडंबना बनी रहेगी, जिसमें मुफ्त अनाज मिलने के बावजूद भारत हंगर इंडेक्स में गिरता जाएगा।