ऐसी रिपोर्ट के साथ यह सवाल जुड़ा होता है कि इसे जारी करने का मकसद असल सूरत को सामने लाना है ताकि गरीबी उन्मूलन की दिशा में प्रगति हो सके- या अपनी सफलता का बखान करना?
पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक जारी किया था, जिसमें बताया गया कि इस पैमाने पर भारत में गरीबों की संख्या घटकर 16.4 रह गई है। सोमवार को नीति आयोग ने इसी पैमाने पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जिसमें बताया गया कि भारत में 2019-21 में घटकर 14.96 प्रतिशत रह गई है। दोनों रिपोर्टों में बताया गया कि उन्होंने अपनी गणना को राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 को आधार बनाया गया है। तो आखिर यह अंतर कैसे आ गया? यह अंतर इसलिए आया कि नीति आयोग ने दो नए पैमाने जोड़े। उसने प्रसव के समय मातृ मृत्यु दर और बैंक खातों को भी गरीबी मापने का आधार बनाया। इसके अलावा रसोई गैस की उपलब्धता जैसे आधार का वजन बढ़ा दिया गया। उससे लगभग डेढ़ प्रतिशत का फर्क पड़ गया। यह अंतर ये भी बताता है कि गरीबी मापने में अगर कुछ भी हेरफेर कर दी जाए, तो संख्या में भारी फर्क पड़ सकता है। नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान में गरीबी दर में सबसे तेज कमी देखी गई।
बहुआयामी गरीबी पैमाने पर भारत में 2015-16 में 24.85 प्रतिशत लोग गरीब थे, जो संख्या 2019-21 में 14.96 प्रतिशत हो गई। यानी पांच साल में गरीबी 9.89 प्रतिशत घटी है। यह भी दावा किया गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या में सबसे अधिक गिरावट आई है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी 32.59 प्रतिशत से घटकर 19.28 प्रतिशत हो गई, जबकि शहरी क्षेत्रों में गरीबी 8.65 प्रतिशत से घटकर 5.27 प्रतिशत हो गई। लेकिन ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच असमानताएं बनी हुई हैं। शहरी क्षेत्रों में 5.27 प्रतिशत की तुलना में ग्रामीण आबादी का 19.28 प्रतिशत बहुआयामी रूप से गरीब है। बहरहाल, ऐसी रिपोर्ट के साथ यह सवाल जुड़ा होता है कि इसे जारी करने का मकसद असल सूरत को सामने लाना है ताकि गरीबी उन्मूलन की दिशा में प्रगति हो सके- या अपनी सफलता का बखान करना? खासकर यह सवाल इसलिए बरबस उठ जाता है, जब आंकड़ों से खिलवाड़ होता हुआ नजर आता है।