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भेदभाव बेपर्दा हुआ

क्रिकेट में मौजूद भेदभाव के मुद्दे पर सिर्फ ईसीबी को कोसने का कोई लाभ नहीं है। ऐसी ही जांच भारत या किसी अन्य देश में कराई जाए, तो वहां भी मिलते-जुलते निष्कर्ष ही सामने आएंगे। क्या ये तमाम देश भी अपने सच का सामना करेंगे?

इंग्लैंड एंड वेल्स क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) का क्रिकेट में भेदभाव और पूर्वाग्रहों के शिकार हुए लोगों से सार्वजनिक माफी मांगना एक स्वागतयोग्य कदम है। बोर्ड ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया, उसकी जांच कराई और जांच रिपोर्ट को स्वीकार किया, इसे भी एक सकारात्मक घटनाक्रम कहा जाएगा। लेकिन यह भी उतना ही अहम है कि लंबे समय से जारी इस भेदभाव के लिए माफी मांग लेना भर काफी नहीं है। असल सवाल है कि क्या अब ऐसे उपाय किए जाएंगे, जिनसे भविष्य में ऐसे तमाम भेदभाव पर रोक लग सके? यह निर्विवाद है कि इंग्लैंड में क्रिकेट संचालन में मौजूद भेदभाव के बारे में आई जांच रिपोर्ट ने ईसीबी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। इस रिपोर्ट ने यह जग-जाहिर कर दिया है कि इंग्लिश क्रिकेट में पूर्वाग्रह भरे-पड़े हैं और उन्हें अब छिपाना संभव नहीं है। ईसीबी ने इंग्लैंड के क्रिकेट में संस्थागत भेदभाव के आरोपों की जांच के लिए कमीशन फॉर इक्विटी इन क्रिकेट का गठन किया था। मोटे तौर पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में वही बातें कही हैं, जिनकी तरफ दशकों से ध्यान खींचा जा रहा था। रिपोर्ट ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि इंग्लिश क्रिकेट में महिलाओं, अश्वेत लोगों और गरीब पृष्ठभूमि से आए लोगों के साथ भेदभाव होता है।

यह भेदभाव कई पीढ़ियों से जारी है। आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि श्वेत पुरुष कप्तानों, कोच और ईसीबी के वरिष्ठ अधिकारियों ने ऐसी शिकायतों को नजरअंदाज किया है। रिपोर्ट से एक खास तथ्य यह सामने आया कि इंग्लैंड में क्रिकेट का ढांचा मूल रूप से आज भी अभिजात्यवादी है। वहां पुरुष श्वेत क्रिकेटरों में 58 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी पढ़ाई-लिखाई महंगे प्राइवेट स्कूलों में हुई है, जबकि ब्रिटेन की कुल आबादी में ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ सात प्रतिशत है। यानी इसे किसी भी रूप में आमजन का खेल आज भी नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, इस मुद्दे पर सिर्फ ईसीबी को कोसने का कोई लाभ नहीं है। ऐसी ही जांच भारत या किसी अन्य देश में कराई जाए, तो वहां भी मिलते-जुलते निष्कर्ष ही सामने आएंगे। क्या ये तमाम देश भी सच का सामना करेंगे?

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