बेहतर होता अपने स्पष्टीकरण में इस पहलू पर तथ्यात्मक सूचना आरबीआई देता। लेकिन सरल भाषा में लोगों से कहा गया है कि वे सार्वजनिक चर्चाओं पर नहीं, बल्कि उसकी बात पर यकीन करें।
हाल में आई दो खबरों ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को संदेह के कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक खबर यह है कि आरबीआई ने बैंकों को उन डिफॉल्टरों से समझौता कर मामला निपटाने का अधिकार दे दिया है, जिन्होंने जानबूझ कर ऋण नहीं चुकाया। इनमें ऐसे भी कई मामले होंगे, जिनमें कर्ज लेने वाली रसूखदार शख्सियत ने उसे ना लौटने के इरादे से ही ऋण लिया होगा। अब बैंक ऐसे कर्जदारों का मामला उनसे बातचीत से निपटा सकेंगे। जाहिर है, उन लोगों पर बकाया दिखने वाली के रकम को माफ भी किया जा सकेगा। एक मीडिया रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि इस फैसले का परिणाम निकट भविष्य तीन लाख 46 हजार करोड़ रुपए की माफी के रूप में आ सकता है। क्या यह सीधे तौर पर बैंक धोखाधड़ी और वित्तीय अपराध को बढ़ावा देना नहीं होगा? यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि किसी ऐसी व्यवस्था में, जहां कानून का राज सर्वोपरि हो, ऐसे फैसले लिए जा सकते हैं।
इसी तरह यह चौंकाने वाली खबर आई कि रिजर्व बैंक ने 500 रुपये के नोटों को जो छपाई करवाई थी, उनमें से 88 हजार करोड़ रुपये मूल्य के नोट गायब हैं। यह सूचना खुद रिजर्व बैंक ने आरटीआई अर्जी पर दी। लेकिन जब यह मामला सियासी हलकों और मीडिया में गरमाया, तो आरबीआई ने एक स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि लोग ऐसी खबरों पर ध्यान ना दें और आरबीआई के इस आश्वासन पर भरोसा करें कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। प्रश्न यही है कि अगर कुछ नहीं हुआ है, तो आरबीआई ने आरटीआई अर्जी पर ऐसी जानकारी क्यों दी? बेहतर होता अपने स्पष्टीकरण में इस पहलू पर तथ्यात्मक सूचना आरबीआई देता। लेकिन सरल भाषा में लोगों से कहा गया है कि वे सार्वजनिक चर्चाओं पर नहीं, बल्कि उसकी बात पर यकीन करें। मगर आरबीआई को शायद यह ख्याल नहीं है कि उसने गुजरे वर्षों में अपनी साख को इतनी चोट पहुंचा दी है कि बहुत से लोग चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाएंगे। इसलिए की उसकी छवि अब स्वतंत्र संस्था की नहीं, बल्कि सरकार से निर्देशित होने वाली संस्था की बन चुकी है।