यह पहला मौका नहीं था, जबकि राज्यपाल रवि ने मर्यादाओं का उल्लंघन किया हो। और ऐसा करने वाले वे एकमात्र राज्यपाल नहीं हैं। विपक्षी पार्टियों की सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव बीते कुछ सालों में काफी बढ़ चुका है।
पिछले हफ्ते तमिलनाडु में जो हुआ, उसे भारत के चरमराते संघीय ढांचे की ही मिसाल कहा जाएगा। वरना, ऐसा कब हुआ था कि किसी राज्यपाल ने बिना मुख्यमंत्री की सिफारिश के किसी मंत्री को बर्खास्त किया हो और मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के आदेश को मानने से इनकार कर दिया हो। हालांकि राज्यपाल आरएन रवि ने केंद्र की सलाह पर बर्खास्तगी के अपने आदेश पर पांच घंटों के अंदर ही अमल पर रोक लगा दी थी, लेकिन उससे जो विवाद भड़का वह अभी तक शांत नहीं हुआ है। इस विवाद से पहले ही विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच बढ़ते टकराव में एक नया आयाम जोड़ दिया है। तमिलनाडु के मंत्री वी सेंथिल बालाजी को मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में गिरफ्तार किया गया था। उसके करीब 15 दिन बाद राज्यपाल रवि ने उन्हें अपनी पहल पर मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। यह तो निर्विवाद है कि किसी मंत्री को बर्खास्त करने का फैसला सिर्फ मुख्यमंत्री ही ले सकता है। राज्यपाल सिर्फ मुख्यमंत्री की सिफारिश पर अमल करता है।
यह सिर्फ संवैधानिक स्थिति है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री को नियुक्त करता है और फिर मुख्यमंत्री की सलाह पर दूसरे मंत्रियों की नियुक्ति करता है। मगर व्यवहार में वही व्यक्ति मुख्यमंत्री बनता है, जिसे विधानसभा में बहुमत का समर्थन हासिल हो। मंत्री कौन बनेगा या कौन मंत्रिमंडल से हटेगा, यह भी व्यवहार में मुख्यमंत्री तय करता है। लेकिन आज के दौर में ये तमाम संसदीय परपंराएं जैसे ताक पर रख दी गई हैं। वैसे यह पहला मौका नहीं है, जबकि राज्यपाल रवि ने मर्यादाओं का उल्लंघन किया हो। और ऐसा करने वाले वे एकमात्र राज्यपाल नहीं हैं। विपक्षी पार्टियों की सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव बीते कुछ सालों में काफी बढ़ चुका है। दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे राज्यों में अक्सर यह टकराव देखने को मिला है। केरल में तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि राज्य सरकार राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है। यह मानना मुश्किल है कि राज्यपाल बिल्कुल स्वेच्छा से ऐसा आचरण कर रहे हैँ। स्पष्टतः पैदा हुई बदमजगी और संघीय ढांचे पर बढ़ते दबाव की जिम्मेदारी केंद्र पर जाती है।