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डूबती उम्मीदों के बीच

वाजिब आशंका है कि बचाव कार्य लंबा खिंचा, तो डूबती-उतराती उम्मीदों के बीच जी रहे मजदूर क्या तब तक अपना जीवन संघर्ष जारी रख पाएंगे। फिलहाल यह साफ है कि मीडिया में बनाया गया यह माहौल निराधार था कि अब कुछ घंटों का ही इंतजार बाकी है।

उत्तराखंड की सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों के जल्द निकल आने की उम्मीदें अब कमजोर पड़ गई हैँ। इस कार्य के लिए ऑस्ट्रेलिया से बुलाए गए विशेषज्ञ ने तो इस कार्य के पूरा होने की समयसीमा क्रिसमस तक बढ़ा दी है। यानी पूरा एक महीना और। यह आशंका वाजिब है कि सचमुच यह काम इतना लंबा खिंचता है, तो डूबती-उतराती उम्मीदों के बीच जी रहे मजदूर क्या तब तक अपना जीवन संघर्ष जारी रख पाएंगे। बहरहाल, यह तो साफ है कि सरकारी ब्रीफिंग के आधार पर मीडिया द्वारा कुछ घंटों के इंतजार का बनाया गया माहौल निराधार था। इस बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सुरंग के पास जाकर टीवी कैमरों के कवरेज के बीच मजदूरों को यह बता आए प्रधानमंत्री उनकी रोज खोज-खबर ले रहे हैं। लेकिन ऐसे त्रासद मौके को भी इवेंट बना देने वाली सरकार अपनी उस परियोजना पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है, जिसे पर्यावरणविदों की चेतावनियों के बावजूद आगे बढ़ाया जा रहा है।

इन चेतावनियों में बार-बार कहा गया है कि हिमालय की पारिस्थितिकी इतनी भुरभुरी है, जिसमें छेड़छाड़ बड़े हादसों को न्योता देना है। हाल के वर्षों में हिमालय क्षेत्र में पारिस्थितिकीय दुर्घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इसी वर्ष इसका भयानक नजारा हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला। बताया जाता है कि सुरंग ढहने के पीछे भी एक प्रमुख कारण हिमाचल की ऐसी संचरना ही है। बहरहाल, आज देश में ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण माहौल बना हुआ है, जिसमें हादसों या अप्रिय घटनाओं की तह में जाने संबंधी चर्चा की गुंजाइश बेहद सिमट गई है। राजनीतिक संस्कृति ऐसी बन गई है, जिसमें आतंकवादियों के हाथों जान गंवाने वाले सैनिक अफसर के घर मंत्री सहायता राशि का चेक लेकर जाते हैं, तो बिलखती मां को उसे सौंपने के लिए टीवी कैमरों और लाव-लश्कर का पूरा तामझाम लगाया जाता है। इतना कि उस लाचार मां को यह कहना पड़ता है कि यहां प्रदर्शनी मत लगाओ। यह दुखद घटना रजौरी मुठभेड में मारे गए कैप्टन शुभम गुप्ता के आगरा स्थित घर पर हुई। मजदूरों की डूबती-उबरती को सांसों को भी इवेंट बनाने की कोशिश को इसी क्रम में देखा जाएगा।

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