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कोरोनावायरस क्यों और कैसे?

ByNaya India,
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कोरोनावायरस  क्यों और कैसे?
चीन में जन्मा कोरोनावायरस अब भारत सहित दुनिया के 25 देशों को आतंकित करने लगा है। चीन से बाहर फिलीपींस में इस वायरस से पहली मौत की पुष्टि हुई है। अपने देश में भी संदिग्ध मरीज सामने आने लगे हैं। केरल में तीन मरीजों में इसके लक्षण मिलने के बाद राज्य सरकार ने प्रदेश में राजकीय आपदा घोषित कर दिया है, जबकि दिल्ली सहित देश के अन्य कुछ क्षेत्रों में संदिग्ध संक्रमित मरीजों के भर्ती होने की खबर आ रही है। विश्वभर से सामने आ रहे मामलों से चिंतित विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहले ही कोरोनावायरस से संबंधित ‘अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल’ की घोषणा कर चुका है। स्वाभाविक है कि कोरोनावायरस से अपने नागरिकों की रक्षा हेतु भारत सहित शेष विश्व के सभी देश हरसंभव उपाय कर रहे है। गत दिनों ही चीन में फंसे 647 भारतीय नागरिकों को मोदी सरकार दो टुकड़ों में एयरलिफ्ट कर चुकी है, जिनकी चिकित्सीय जांच जारी है। आलोचना होने के बाद पाकिस्तान भी चीन में फंसे अपने नागरिकों को स्वदेश ले आई है। इससे पहले उसने अपर्याप्त चिकित्सीय सुविधा का हवाला देकर अपने लोगों को चीन से वापस स्वदेश लाने से मना कर दिया था। यह वायरस कितना खतरनाक हो चुका है?- इसका उत्तर, चीन में सामने आने वाले संदिग्ध मामलों के आंकड़े में छिपा है। बीते रविवार (2 फरवरी) को पांच हजार, तो सोमवार (3 फरवरी) को तीन हजार से अधिक नए संदिग्ध मरीजों का पता चला है, जिनमें कुछ ही हालत बेहद चिंताजनक बनी हुई है। आलेख लिखे जाने तक- आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस वायरस से चीन में 500 लोगों से अधिक की मौत हो चुकी है, 20 हजार से अधिक संक्रमित हैं और डेढ़ लाख लोगों को चिकित्सीय निगरानी में रखा गया है। सच तो यह है कि चीन के अनपौचारिक आंकड़े, सरकारी दावों से कहीं अधिक भयावह प्रतीत हो रहे है, क्योंकि अपनी पुरानी फितरत के अनुरूप चीन अपने देश की वस्तुस्थिति को सार्वजनिक नहीं कर रहा है। यह बात उस घटना से भी स्पष्ट है, जिसमें एक चीनी चिकित्सक को दिसंबर में इसलिए हिरासत में ले लिया गया था, क्योंकि उसने कोरोनावायरस के सात मामलों की जानकारी एक चैट में सार्वजनिक कर दी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि चीन में यह वायरस दिसंबर में ही सक्रिय हो गया था। चीन का ऐसा ही बर्ताव वर्ष 2003-04 में भी दिखा था, जब सार्स नामक वायरस की चपेट में आने 800 लोगों की मौत हो गई थी। ब्रितानी समाचारपत्र ‘द सन’ का दावा है कि चीन में कई राहगीर बेहोश होकर मर रहे है और अधिकांश में जांच के पश्चात कोरोनावायरस मिला है। स्थिति यह हो गई है कि 1.45 अरब की आबादी वाले चीन में चिकित्सीय उपकरणों की कमी हो गई है। इस वायरस से उसकी आर्थिकी को बड़ा नुकसान तो पहुंच ही रहा है, साथ ही उत्तरी-कोरिया, जापान, वियतनाम आदि देशों में चीन-विरोधी भावना भी भड़क उठी है, जिसमें कई रेस्त्रांओं-होटलों में चीनी नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। आखिर चीन सहित शेष विश्व इस स्थिति में कैसे पहुंचा? कोरोनावायरस कुछ विशेष प्रजातियों के पशु-पक्षियों में पाया जाता है, जिसमें चमगादड़ और सांप जैसे जीव शामिल हैं। जब यह वायरस मनुष्य में पहुंचा, तो इसने स्वयं को इस तरह विकसित कर लिया कि यह इंसानों में भी जीवित रह सके। इसका यही बदला हुआ स्वरूप चिकित्सकों के सामने चुनौती बना गया है। अब कोरोनावायरस मनुष्य में कैसा पहुंचा- इसका उत्तर खोजना कठिन नहीं है, क्योंकि मनुष्यों द्वारा पशु-पक्षियों के मांस का सेवन आज विश्वभर में किया जा रहा है। कोरोनावायरस की शुरूआत चीन के वुहान से हुई है। यहां के हुआनान बाजार में चमगादड़, सांप, चूहे, लोमड़ी, मगरमच्छ, भेड़िया, मोर और ऊंट सहित 112 जीवों का मांस भी बिकता है- जहां से यह वायरस मनुष्य के भीतर में पहुंचा। यही कारण है कि वुहान इसका केंद्र बना हुआ है। चिकित्सकों का मानना है कि चमगादड़ों ने बिल्ली जैसे कई जीवों को संक्रमित किया होगा और उन्हीं संक्रमित जीवों (चमगादड़ सहित) का मांस खाने से यह वायरस चीनी नागरिकों में फैल गया और उनके संपर्क में आए अन्य लोग संक्रमित हो गए। चीन के खान-पान की आदतों से अधिकांश पाठक परिचित होंगे, जो कोरोनावायरस से चिकित्सीय संघर्ष में बाधक भी बना हुआ है। लगभग हर प्रकार के जीवमांस का भक्षण यहां किया जाता है। इससे संबंधित कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी है। चीन स्वयं को एक महान सभ्यता मानता आया है। चीन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद और विद्वान क्वांग-चिह चांग का कहना है- सदियों से यहां सामान्य लोगों के घर दैनिक भोजन में चार प्रकार के खाद्य-समूह होते हैं- अनाज, सब्जियां, फल और मांस। यही कारण है कि वहां अक्सर प्रतिदिन जीव-मांस का सेवन किया जाता है। मैं शंघाई और बीजिंग का दौरा कर चुका हूं, किंतु वहां स्वतंत्र होकर बाजारों में भ्रमण करने का अवसर नहीं मिला। लेकिन चीन द्वारा नियंत्रित हागकांग में मेरे 1996-97 के निजी दौरे में मैंने चीनी खानपान को निकट से देखा था। विश्व में कोरोनावायरस जैसी महामारियां प्रकृति से छेड़छाड़ करने से जनित है। चार्ल्स डार्विन ने 1858 में 'क्रमविकास सिद्धांत' को विश्व के समक्ष रखा था। कैथोलिक चर्च द्वारा स्थापित धारणाओं को चुनौती देते हुए डार्विन ने पाया था कि बहुत से पेड़-पौधों और जीव प्रजातियों का आपस में गहरा संबंध है, जिसका निर्माण ईश्वर ने केवल मानवीय उपभोग के लिए नहीं किया था। जीव-हत्या को हम सभ्य नहीं कह सकते। आज दुनियाभर में ‘वीगनवाद’ का चलन जोरों पर है, जो वैश्विक समाज में विशिष्ट वर्ग के लिए एक प्रतिष्ठा का प्रतीक तक बन गया है। वास्तव में, ‘वीगन’ शुद्ध शाकाहार का ही एक स्वरूप है, जिसका जन्म हिंदू वैदिक-कालखंड, अर्थात- प्राचीन भारत में हुआ था। इसका अभ्यास भारतवर्ष में उस समय से आज भी जारी है, जब दुनिया में प्रभु ईसा मसीह का जन्म भी नहीं हुआ था। यह बात अलग है कि कालांतर में अन्य विदेशी विचारधाराओं, मजहबों और संस्कृतियों के भारत में आगमन के साथ इसमें घालमेल होता गया। इस्लामी अतातायियों, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेजों और वामपंथियों के भारत आने से यहां की मूल संस्कृति को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा है। यही कारण है कि वर्तमान भारतवर्ष के एक वर्ग की वैदिक हिंदू परंपराओं, संस्कृति, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के प्रति घृणा प्रत्यक्ष है। क्या यह सत्य नहीं कि वैदिक संस्कृति प्रकृति संरक्षण को न केवल बढ़ावा देती है, अपितु सभी पशु-पक्षियों, नदियों, पहाड़ आदि के कल्याण का भाव भी इसमें निहित है? हिंदू मान्यताओं के अनुसार, देवी-देवताओं के 33 प्रकार हैं, जिनमें:- 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, इंद्र और प्रजापति हैं। जिन आठ वसुओं का उल्लेख वेदों में है- वे:- आप, ध्रुव, चंद्रमा, धरती, वायु, अग्नि, जल और आकाश है। हिंदू समाज में अधिकांश लोग इन सभी वसुओं की आराधना करते, साथ ही इसे नुकसान पहुंचाने या दूषित करने को पाप के समकक्ष रखते है। यही नहीं, भारतीय संस्कृति में गाय, श्वान, बिल्ली, चूहा, हाथी, शेर, बाघ, काक आदि और यहां तक कि सांपों को भी विशिष्ट स्थान दिया गया है। क्या इन सब वैदिक परंपराओं के पीछे जीव और प्रकृति संरक्षण का संदेश निहित नहीं है? कटु सत्य है कि यह सभी बातें आज केवल रीति-रिवाजों और परंपराओं तक सीमित रह गए है, जो सामान्य व्यवहार में प्रतिबिंबित नहीं होते है। मनुष्य आज तकनीकी रूप से कहीं अधिक विकसित और बलशाली तो हो गया है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे प्रकृति से खिलवाड़ करने लगे। सच तो यह है कि मनुष्य को अपनी सीमा ज्ञात होनी चाहिए और उसे पता होना चाहिए कि यदि वह उस सीमा लांघने का प्रयास करता है, तो उसे इसकी एक निश्चित कीमत चुकानी पड़ेगी ही। यदि विश्व की भावी पीढ़ी को कोरोनावायरस जैसे महामारी से सुरक्षित रखना है, तो वैश्विक समाज को प्रकृति के प्रति प्रत्येक दर्शन के दृष्टिकोण का ईमानदारी के साथ आकलन करना चाहिए। क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ऐसा संभव है?
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