प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के रेहड़ी-पटरी वालों से वीडियो कांफ्रेंस के जरिए बात की। इसको स्वनिधि संवाद का नाम दिया गया है। नाम से ही जाहिर है कि यह स्वरोजगार से जुड़ा हुआ मामला है। इसके पहले संवाद के लिए मध्य प्रदेश का चयन भी खास मकसद का इशारा है। पर उस राजनीति को छोड़ दें तब भी प्रधानमंत्री ने अपने संवाद कार्यक्रम के दौरान, जो कहा उससे कई सवाल खड़े होते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले छह साल में गरीबों के लिए जितना काम हुआ उतना कभी नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि पहले गरीबों की सिर्फ बात होती थी पर उनकी सरकार ने गरीब के लिए काम किया। प्रधानमंत्री ने जन धन योजना में बैंक खाते खुलवाने और उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलिंडर दिए जाने का जिक्र किया।
अब सवाल है कि क्या सचमुच छह साल में गरीबों के लिए बहुत काम हुआ है? अगर ऐसा है तो फिर देश के 80 करोड़ लोगों को पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो चना देने की क्या जरूरत है? देश के 80 करोड़ लोग इसी छह किलो अनाज पर पल रहे हैं। यह आधिकारिक आंकड़ा है कि अप्रैल से लेकर अभी तक 85 लाख के करीब लोगों ने महात्मा गांधी नरेगा की योजना के तहत काम के लिए अपना रजिस्ट्रेशन कराया है। यह अब तक का रिकार्ड है। अगर गरीब के लिए इतना काम हुआ है, जितना अब तक नहीं हुआ तो फिर क्यों छह महीने के संकट ने देश में गरीबी को दोगुना कर दिया? 40 करोड़ जन धन खाते खुलवाने का दावा किया जा रहा है पर सवाल है कि उन खातों में है क्या? क्या उन खातों में पैसे हैं? अगर 40 करोड़ खातों में पैसे होते तो देश के सामने आर्थिकी का इतना बड़ा संकट नहीं खड़ा हुआ रहता। सरकार का आधिकारिक आंकड़ा बता रहा है कि अप्रैल से जून के बीच विकास दर में 24 फीसदी की गिरावट हुई है। हालांकि देश के मशहूर अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने बताया है कि सरकार का आंकड़ा अधूरा है। पहली तिमाही में असल में 40 फीसदी की कमी आई है।
सोचें, अगर 40 करोड़ खातों में पैसे होते तो क्या आर्थिकी की यह हालत होती? जन धन खातों की बात छोड़ें, तब भी बैंकों में खुले गरीबों के खाते में न्यूनतम बैलेंस बनाए रखना लोगों के लिए मुश्किल है। कोरोना के संकट में सरकार ने न्यूनतम बैलेंस से छह महीने तक छूट दी थी पर उससे पहले न्यूनतम बैलेंस मेन्टेन नहीं होने की वजह से बैंकों को बड़ी कमाई हो रही थी। पिछले साल जुलाई में आंकड़ा आया था कि तीन साल में न्यूनतम बैलेंस मेन्टेन नहीं करने वालों से बैंकों ने 10 हजार करोड़ रुपए वसूले थे। जिस समय सरकार गरीबों के लिए अब तक का सबसे अच्छा काम कर रही थी उस समय ये कौन लोग थे, जो बैंकों में न्यूनतम बैलेंस नहीं मेन्टेन कर पा रहे थे और हजारों करोड़ रुपए का जुर्माना भर रहे थे?
भारत में कोरोना वायरस का संक्रमण शुरू होने और उसे रोकने के लिए लगाए गए दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन के पहले ही महीने में यानी अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, आईएलओ ने गरीबी को लेकर एक अनुमान जाहिर किया था। इसके मुताबिक कोरोना काल में भारत क 40 करोड़ लोग एबसोल्यूट पॉवर्टी यानी संपूर्ण गरीबी में जा सकते हैं। भारत में एनएसएसओ के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक 2011-12 में 21.9 फीसदी लोग गरीब थे। प्रति व्यक्ति उपभोग के आंकड़ों के आधार पर आकलन किया गया है कि इस साल गरीबी बढ़ कर 46.3 फीसदी हो जाएगी। यानी 2011-12 के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा हो जाएगी। इस आकलन के मुताबिक भारत में गरीबी का यह अनुपात 1993-94 के बराबर हो जाएगा।
सोचें, देश में 1991 के सबसे खराब आर्थिक संकट के दो साल बाद देश में गरीबी के जो हालात थे वह अब बनने वाले हैं। भारत में गरीबों की संख्या 35 करोड़ से बढ़ कर 62 करोड़ पहुंच सकती है। अगर राज्यवार देखेंगे तो पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में गरीबी का अनुपात 50 फीसदी पहुंचेगा। यानी आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाएगी। यह संख्या सबसे न्यूनतम प्रति व्यक्ति उपभोग के आंकड़ों पर आधारित है। इसका मतलब वास्तविक गरीबी इससे कहीं ज्यादा होगी।
इससे पहले 2004-05 में भारत में गरीबी का अनुपात 37 फीसदी था। यानी 37 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली थी। पर अगले सात साल में इसमें बड़ा सुधार हुआ। 2011-12 में यह घट कर 21.9 फीसदी पहुंच गई, जिसका ऊपर जिक्र किया गया है। यानी सात साल में 15 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से ऊपर आई थी। अब फिर आधी आबादी के गरीबी रेखा के नीचे जाने का खतरा है। तभी सवाल है कि जब छह साल में गरीबों के लिए इतना काम हुआ है, जितना पहले कभी नहीं हुआ तो उस काम से क्या हासिल हुआ है?
असल में सरकार की आर्थिक नीतियों खास कर नोटबंदी की वजह से देश का असंगठित क्षेत्र, जिससे देश का गरीब या निम्न वर्ग मुख्य रूप से जुड़ा हुआ था वह लगभग पूरी तरह से खत्म हो गया है। यह संकट कोरोना वायरस का संक्रमण शुरू होने से पहले से चल रहा था। कोरोना के संक्रमण ने इसे और बड़ा बना दिया। अब दो तरह के खतरे हैं। पहला गरीबी बढ़ने और दस साल पुराने औसत से दोगुना होकर करीब 30 साल पहले के अनुपात पर पहुंच जाने का है और दूसरा आर्थिक असमानता बढ़ने का है। जितनी तेजी से गरीबी बढ़ेगी, उतनी ही तेजी से आर्थिक असमानता बढ़ेगी। पहली तिमाही में विकास दर में 24 फीसदी की गिरावट को ही मानें तो इसका मतलब यह निकाला गया है कि प्रति व्यक्ति आय में 27 हजार रुपए की कमी आएगी। यह कमी आगे जारी रहेगी तो मध्य वर्ग का आदमी निम्न मध्य वर्ग में और निम्न मध्य वर्ग का आदमी गरीबी रेखा के नीचे जाएगा। जो पहले से अमीर हैं उन पर इसका असर कम होगा